शहीद भगत सिंह की जीवनी-Bhagat Singh biography in hindi :- आज हम भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद भगत सिंह की जीवनी (Bhagat Singh ki jiwani ) or भगत सिंह का जीवन परिचय के बारे में जानेंगे। अपने देश के लिए मात्र 23 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। भगत सिंह ने बचपन से ही अत्याचार देखा था। वह अपने लोगो को प्रताड़ित होते हुए नहीं देखना चाहता था। इसीलिए उन्होंने अपने मित्रो के साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी। देश की आजादी में लाखों लोगों ने अपने प्राण न्योछावर किये थे, उन्ही महान स्वतंत्रता सेनानियों में से शहीद भगत सिंह भी एक थे।
वह छोटी सी उम्र में ही नौजवानों को देश की आजादी के लिए प्रोत्साहित करने लगा था। इसीलिए वह आजादी की लड़ाई के समय सभी के लिए एक आदर्श स्वतंत्रता सैनानी था। भगत सिंह अपने युवा साथियो के साथ मिलकर देश को अंग्रेजो के चंगुल से मुक्त करना चाहते थे। उनका मानना था कि युवा कुछ भी कर सकते है और देश के नौजवान देश को आजाद करा सकते है। भगत सिंह सभी नौजवानों को अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह करने के लिए नई दिशा दिखाते रहते थे। उनका जीवन संघर्ष से भरा हुआ था। आज भी सभी युवा उनके जीवन से प्रेरणा लेते है। भारत के एक महान स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रान्तिकारी थे। (Bhagat Singh ki jiwani )
भगत सिंह का जीवन परिचय एक नजर में
नाम | शहीद भगत सिंह |
जन्म | 28 सितम्बर 1907 |
जन्मस्थल | गाँव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) |
पिता का नाम | सरदार किशन सिंह सिन्धु |
माता का नाम | श्रीमती विद्यावती देवी |
भाई-बहन | रणवीर, कुलतार, राजिंदर, कुलबीर, जगत, प्रकाश कौर, अमर कौर, शकुंतला कौर |
चाचा | श्री अजित सिंह |
आन्दोलन | भारतीय स्वतंत्रता संग्राम |
प्रमुख संगठन | नौजवान भारत सभा, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन |
मृत्यु | 23 मार्च 1931 |
मृत्युस्थल | लाहौर जेल, पंजाब ( पाकिस्तान में) |
भगत सिंह का प्रारंभिक जीवन-जन्म और परिवेश
भगत सिंह का जन्म 24 सितंबर 1906 (अश्विन कृष्णपक्ष सप्तमी) को प्रचलित है परन्तु तत्कालीन अनेक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म 27 सितंबर 1907 को हुआ था। भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ था। भगत सिंह का जन्म गाँव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। भगत सिंह के पिताजी का नाम सरदार किशन सिंह और माताजी का नाम विद्यावती कौर था। यह एक किसान परिवार से थे।
भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिताजी जेल में थे। भगत सिंह ने बचपन से ही अपने घर वालों में देश भक्ति देखी थी। उनके चाचा अजित सिंह बहुत बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। जिन्होंने भारतीय देशभक्ति एसोसिएशन की स्थापना की थी। इस संगठन में उनके साथ सैयद हैदर रजा थे। अजित सिंह के खिलाफ 22 केस दर्ज थे। इसीलिए इन मामलों से बचने के लिए उन्हें ईरान जाना पड़ा था। अमृतसर में 13 April 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। (भगत सिंह की जीवनी)
भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज से BA कर रहे थे। वही पर उनकी मुलाकात सुखदेव थापर, भगवती चरन और कुछ अन्य लोगो से हुयी। उस समय आजादी की लड़ाई चरम पर थी। उस समय लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इधर भगत सिंह युवाओं में देश प्रेम के बीज बो रहे थे और उधर उनके घर वाले उनकी शादी का विचार कर रहे थे। भगत सिंह ने शादी से साफ मना कर दिया। भगत सिंह कॉलेज में अनेक नाटक कार्यकर्मो में भाग लिया करते थे। उनके नाटक, स्क्रिप्ट देशभक्ति से परिपूर्ण होते थे, जिससे वह कॉलेज के नौजवानों को आजादी के लिए आगे आने को प्रोत्साहित करते थे।
उन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन का खुलकर समर्थन किया था। वह खुले आम अंग्रेजों को ललकारा करते थे। वह गाँधीजी के कहने पर ब्रिटिश बुक्स को जला दिया करते थे। वर्ष 1922 में चौरी-चौरा हत्याकांड के बाद गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन बंद कर दिया था। इस वजह से भगत सिंह उनके फैसले से खुश नहीं थे और उन्होंने गाँधी जी की अहिंसावादी बातों को छोड़ दूसरी पार्टी ज्वाइन करने की सोची। गाँधी जी ने जब किसानों का साथ नहीं दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। उसके बाद उनका अहिंसा से विश्वास उठ गया था। तब उन्होंने फैसला किया कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र रास्ता है।
बाद में वह चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में गठित हुई गदर दल में शामिल हो गए। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद बिस्मिल सहित 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 क्रान्तिकारियों को कारावास की सजा मिली, जिससे भगत सिंह इतने अधिक क्रोधित हुए कि चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। जो बाद में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो सके।
भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 December 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 April 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
क्रान्तिकारी गतिविधियाँ-(भगत सिंह की जीवनी)
जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था, तब भगत सिंह लगभग 12 वर्ष के थे। जब भगत सिंह को इसकी खबर मिली तब वह स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ?
गाँधीजी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वह गाँधीजी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गाँधीजी के द्वारा असहयोग आन्दोलन को बंद करने पर उन्हें बहुत गुस्सा आया और गाँधीजी की अहिंसावादी बातों पर से उनका विश्वास उठ गया था। (भगत सिंह की जीवनी)
हालाँकि वह भी अन्य देशवासियों की तरह महात्मा गाँधी का सम्मान करते थे। बाद में उन्होंने गाँधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसात्मक क्रांति का मार्ग को चुना। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु जैसे महान क्रांतिकारी थे।
काकोरी काण्ड में 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी व 16 क्रान्तिकारियों को कारावास की सजा मिली। इससे भगत सिंह इतने अधिक क्रोधित हुए कि उन्होंने सन 1928 में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन”।
लाला लाजपत राय की मृत्यु का प्रतिशोध
सन 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए थे। “साइमन वापस जाओ” का नारा लगाते हुए, वे लोग लाहौर रेलवे स्टेशन पर ही खड़े रहे। जिसके बाद इन प्रदर्शनों में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। जिसमें लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए थे। इस तरह लाठी चार्ज से आहत होकर उनकी म्रत्यु हो गई।
इस घटना से भगत सिंह से रहा नहीं गया और उन्होंने एक गुप्त योजना के तहत पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो।गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गए। (भगत सिंह की जीवनी)
उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। 17 December 1928 को करीब 4:15 बजे ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी। यह गोली उनकी मृत्यु के लिए काफी थी। लेकिन तुरन्त बाद भगत सिंह ने भी 3-4 गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया था।
इन दोनों ने जैसे ही भागना शुरू किया, तभी एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया – “आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।” नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी और वह वहीं पर मर गया। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया था।
एसेम्बली में बम फेंकना-(भगत सिंह की जीवनी)
चूँकि भगत सिंह रक्तपात के पक्षधर नहीं थे। परन्तु वह वामपंथी विचारधारा को मानते थे। कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका ताल्लुक था और उन्हीं विचारधारा को वह आगे बढ़ा रहा था। वह समाजवाद का पक्का पोषक था। कॉंग्रेस के सत्ता में रहने के बावजूद भगत सिंह को शहीद का दर्जा नही दिलवा पायी, क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। उन्हें पूँजीपतियों द्वारा मजदूरों के शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय अँग्रेज ही फलफूल रहे थे।
अंग्रेजी शासन में बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे। उस समय अंग्रेज अधिकारी मजदूरों पर अत्याचार करते थे। अतः भगत सिंह का विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिए कि हिन्दुस्तानी अब जाग चुके हैं। उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई थी।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी ‘आवाज़’ भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सभी लोग ऐसा नहीं सोचते थे। परन्तु बाद में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। योजना के अनुसार 8 April 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। (भगत सिंह की जीवनी)
भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो। अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने “इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!” का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिए। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर के ले गयी।
भगत सिंह द्वारा जेल में बिताये हुए दिन
जेल में भगत सिंह ने लगभग 2 साल व्यतीत किये थे। इस समय अंतराल में वह लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहते थे। जेल में रहते हुए भी उनका अध्ययन लगातार जारी रहा। उस समय भगत सिंह द्वारा लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से कई पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया था।
उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ? जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। भगत सिंह को जेल में बहुत यातना सहन करनी पड़ी थी। उस समय कांग्रेस दल के नेता भी उन्हें बचा नहीं सके थे।
शहीद भगत सिंह की फांसी-(भगत सिंह की जीवनी)
26 अगस्त 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6F तथा IPC की धारा 120 के तहत अपराधी करार दिया गया। 7 अक्तूबर 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई।
कोर्ट में भी तीनों इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते रहे थे। फाँसी की सजा सुनाए जाने के बाद लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। भगत सिंह ने जेल में रहकर भी बहुत यातनाएं सहन की। उस समय भारतीय कैदियों के साथ अच्छा व्यव्हार नहीं किया जाता था। उन्हें ना तो अच्छा खाना दिया जाता था और ना ही कपड़े।
भगत सिंह की फाँसी रुकवाने के लिए प्रिवी परिषद में अपील की गई, परन्तु यह अपील 10 जनवरी 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने भगत सिंह की फाँसी रुकवाने के लिए 14 फरवरी 1931 को याचिका पेश की। उन्होंने वायसराय के सामने तर्क रखा कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए इंसानियत के नाते फांसी की सजा माफ कर दें।
कैदियों की स्थिति में सुधार करने के लिए भगत सिंह ने जेल के अंदर भी आन्दोलन शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी मांग पूरी करवाने के लिए कई दिनों तक पानी नहीं पिया था। और ना ही अन्न का एक दाना भी ग्रहण किया। अंग्रेज पुलिस उन्हें बहुत मारा करती थी। उन्हें तरह तरह की यातनाएं दी जाती थी। जिससे भगत सिंह परेशान होकर हार जाएँ, लेकिन उन्होंने अंत तक हार नहीं मानी। वर्ष 1930 में भगत जी ने Why I Am Atheist नाम की किताब लिखी। (Bhagat Singh ki jiwani )
भगत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ करवाने के लिए महात्मा गाँधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की। 18 फरवरी 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील की। परन्तु किसी भी तरह अंग्रेज अधिकारी सजा माफ़ करने को तैयार नहीं थे।
अंत में 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। कहा जाता है कि भगत सिंह को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन उस समय देश में उनकी रिहाई के लिए प्रदर्शन हो रहे थे। इस वजह से ब्रिटिश सरकार को डर था कि कही प्रदर्शनकारी उन्हें आजाद न करा ले।
फांसी से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उनसे पूछा गया कि उनकी आखिरी इच्छा क्या है तो भगत सिंह जी ने कहा कि मुझे यह किताब पूरी पढ़ लेने दीजिए। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”
कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का समय आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिए! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से यह गीत गा रहे थे -(भगत सिंह की जीवनी)
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥
फाँसी के बाद कोई आन्दोलन न भड़क जाये, इस डर से अंग्रेजों ने पहले उनके मृत शरीर के टुकड़े किये। फिर इन टुकड़ो को बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये। जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। तब गाँव के लोग जलती हुई आग को देखकर नजदीक आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनके शव के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंककर भाग गए। जब गाँव वाले पास आकर शव के टुकड़े देखे, तो उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया।
इस तरह भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु हमेशा के लिए अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधीजी को भी इनकी मौत का जिम्मेदार समझने लगे। जब गाँधीजी काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे, तब लोगों ने काले झण्डों के साथ गाँधी जी का स्वागत किया। कहा जाता है कि महात्मा गाँधी चाहते तो भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की फांसी रुकव सकते थे, लेकिन गाँधीजी ने फांसी नहीं रुकवाई।
भगत सिंह का व्यवहार-(भगत सिंह की जीवनी)
जेल के दिनों में उनके द्वारा लिखे गए खतों और लेखों से उनके व्यक्तित्व का अन्दाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने भारतीय समाज में लिपि, जाति और धर्म के कारण आई दूरियों पर गहरा दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के अत्याचार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि अंग्रेजो द्वारा किये गये अत्याचार को। भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला का भी ज्ञान था। उन्होंने यह भाषा बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी।
उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता ओर जागरूक हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका पूर्ण पालन किया। (Bhagat Singh ki jiwani )
उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये। फाँसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था।
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें॥
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी। अंग्रेजो का शासन दुनिया के बड़े हिस्से पर था। उनके शासन में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। फिर भी इतनी ताकतवर हुकूमत एक 23 साल के युवक से भयभीत हो गई थी।
भगत सिंह की ख्याति और सम्मान
उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा। इसके बाद कई मार्क्सवादी पत्रों में उनके पर लेख छपे। लेकिन भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था। इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी। देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया। (Bhagat Singh ki jiwani )
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ?” पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसू के 22-29 March 1931 में तमिल में सम्पादकीय लिखा। इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था। आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी।
भगत सिंह के अनमोल वचन
- मेरी गर्मी के कारण राख का एक-एक कण चलायमान हैं मैं ऐसा पागल हूँ जो जेल में भी स्वतंत्र हैं।
- प्रेमी, पागल व कवि एक ही थाली के चट्टे बट्टे होते हैं अर्थात सामान होते हैं।
- किसी को “क्रांति” को परिभाषित नहीं करना चाहिए। इस शब्द के कई अर्थ व मतलब हैं जो कि इसका उपयोग या दुरपयोग करने वाले तय करते हैं।
- यदि बेहरों को सुनाना हैं तो आवाज तेज करनी होगी। जब हमने बम फेका था तब हमारा इरादा किसी को जान से मारने का नहीं था। हमने ब्रिटिश सरकार पर बम फेका था। ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ना होगा और उसे स्वतंत्र करना होगा।
- जो व्यक्ति उन्नति के लिए राह में खड़ा होता हैं उसे परम्परागत चलन की आलोचना व विरोध करना होगा। साथ ही उसे चुनौति देनी होगी।
- क्रांति में सदैव संघर्ष हो यह आवश्यक नहीं। यह बम और पिस्तौल की राह नहीं हैं।
- सामान्यत: लोग परिस्थती के आदि हो जाते हैं और उनमे बदलाव करने की सोच मात्र से डर जाते हैं। अतः हमें इस भावना को क्रांति की भावना से बदलने की आवश्यकता हैं।
- क्रांति मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार हैं। साथ ही आजादी भी जन्म सिद्ध अधिकार हैं और परिश्रम समाज का वास्तव में वहन करता हैं।
- मैं एक इंसान हूँ और जो भी चीज़े इंसानियत पर प्रभाव डालती हैं, मुझे उनसे फर्क पड़ता हैं।
- जीवन अपने दम पर चलता हैं, दूसरों का कन्धा अंतिम यात्रा में ही साथ देता हैं।
- कठोरता व आजाद सोच ये दो क्रातिकारी होने के गुण हैं।
- कोई व्यक्ति तब ही कुछ करता हैं, जब वह अपने कार्य के परिणाम को लेकर आश्वस्त होता हैं जैसे हम असेम्बली में बम फेकने पर थे।
- अहिंसा को आत्म विश्वास का बल प्राप्त हैं, जिसमें जीत की आशा से कष्ट सहन किया जाता हैं। अगर यह प्रयत्न विफल हो जाये तब क्या होगा ? तब हमें इस आत्म शक्ति को शारीरक शक्ति से जोड़ना होता हैं ताकि हम अत्याचारी दुश्मन की दया पर न रहे।
- मैं यह मानता हूँ कि मैं महत्वकांक्षी, आशावादी व जीवन के प्रति उत्साही हूँ। लेकिन आवश्यकता अनुसार मैं इन सबका परित्याग कर सकता हूँ।
FAQ
Q : भगत सिंह का जन्म खा हुआ था ?
Ans : 28 सितंबर 1907
Q : भगत सिंह की आयु कितनी थी?
Ans : 23 वर्ष (1907–1931)
Q : भगत सिंह को फांसी देने वाले जज का नाम क्या था?
Ans : जी.सी. हिल्टन
Q : भगत सिंह ने जेल में कौन सी पुस्तक लिखी?
Ans : Why I Am Atheist
Q : भगत सिंह के पिता का नाम क्या था ?
Ans : सरदार किशन सिंह संधु
Q : उस जज का नाम क्या था जिसने अपना इस्तीफा दे दिया लेकिन भगत सिंह को फांसी नहीं लिखी थी?
Ans : जस्टिस आग़ा हैदर ने
Q : भगत सिंह का जन्म कहाँ हुआ?
Ans : बंगा, पाकिस्तान
Q : भगत सिंह का गांव कौन सा था?
Ans : गाँव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब ( पाकिस्तान में)
Q : भगत सिंह को फांसी किसकी गवाही से हुई?
Ans : शादी लाल और शोभा सिंह
Q : भगत सिंह को कब फांसी दी गई थी?
Ans : 23 मार्च 1931
Q : भगत सिंह के गुरु कौन थे?
Ans : क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा
Q : भगत सिंह कितने दिन जेल में रहे?
Ans : लगभग 2 साल
Q : भगत सिंह की अंतिम इच्छा क्या थी?
Ans : भगत सिंह की अंतिम इच्छा थी कि उन्हें गोली मार कर मौत दी जाए, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी इस इच्छा को नजरअंदाज कर दिया था।
Q : भगत सिंह का नारा क्या था?
Ans : इंकलाब जिंदाबाद
Q : भगत सिंह की शिक्षा कितनी थी?
Ans : नेशनल कॉलेज़, लाहौर से BA करते हुए उन्होंने बीच में ही छोड़ दिया था।
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