डॉ भीमराव अम्बेडकर की जीवनी। आज हमें जो अधिकार प्राप्त हुए है वो सब डॉ भीमराव अम्बेडकर की ही देन है। भीमराव अम्बेडकर को भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है। वे डॉ॰ बाबासाहब अम्बेडकर के नाम से लोकप्रिय थे। बाबासाहब अम्बेडकर भारतीय बहुज्ञ, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, और समाजसुधारक थे। उन्होंने दलित बौद्ध आन्दोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया था। श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया था। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मन्त्री, भारतीय संविधान के जनक एवं भारतीय गणराज्य के जन्मदाता कहे जाते है।
हिन्दू धाम में व्याप्त कुरूतियों और छुआछूत की प्रथा से तंग आकार सन 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण लिया था। सन 1990 में उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरान्त सम्मानित किया गया था। 14 अप्रैल को उनका जन्म दिवस अम्बेडकर जयन्ती के तौर पर भारत सहित दुनिया भर में मनाया जाता है। डॉ भीम राव अम्बेडकर की विरासत में लोकप्रिय संस्कृति में कई स्मारक और चित्रण शामिल हैं।
डॉ भीमराव अम्बेडकर की जीवनी- Biography of dr. Bhim Rao Ambedkar in hindi
अम्बेडकर बच्चपन से कुशाग्र व प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ हासिल की थी। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में शोध कार्य भी किये थे। व्यावसायिक जीवन के शुरू में वे एक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे और साथ में वकालत भी की। इसके बाद इनका जीवन राजनीतिक गतिविधियों में अधिक बीता। अम्बेडकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार-प्रसार और चर्चाओं में शामिल हो गए और पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत करना शुरू की और भारत के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। Biography of dr. Bhim Rao Ambedkar in hindi
बाबासाहब अम्बेडकर का प्रारम्भिक जीवन
अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश में स्थित महू नगर की सैन्य छावनी में हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल व माता का नाम भीमाबाई था। वे अपने माता-पिता की 14 वी अंतिम संतान थे। उनके पिता जी रामजी वल्द मालोजी सकपाल महू में ही मेजर सूबेदार के पद पर एक सैनिक अधिकारी थे। 14 अप्रैल 1891 के दिन जब रामजी सूबेदार अपनी ड्यूटी पर थे तब 12 बजे के आसपास भीमराव का जन्म हुआ। उनका परिवार कबीर पंथ को मानने वाला मराठी मूूल का था। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे। जो उस समय अछूत कही जाती थी। इस कारण उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव सहन करना पड़ता था। भीमराव अम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे।
अपनी जाति के कारण बालक भीम को सामाजिक प्रतिरोध व छुआछूत का सामना करना पड़ रहा था। विद्यालयी पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छात्र भीमराव को छुआछूत के कारण अनेक प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ता था। उन्हें कक्षा से बाहर बिठाया जाता और पानी पीने नहीं दिया जाता था। कोई उन्हें छूता तक नहीं था। 7 नवम्बर 1900 को रामजी सकपाल ने सातारा की सरकारी स्कूल में अपने बेटे भीमराव का नाम भिवा रामजी आंबडवेकर दर्ज कराया। उनके बचपन का नाम ‘भिवा’ था।
अम्बेडकर का मूल उपनाम सकपाल की बजाय आंबडवेकर लिखवाया था जो कि उनके आंबडवे गाँव से संबंधित था। क्योंकी कोकण प्रांत के लोग अपना उपनाम गाँव के नाम से रखते थे। अम्बेडकर के आंबडवे गाँव से आंबडवेकर उपनाम स्कूल में दर्ज करवाया गया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा केशव अम्बेडकर ने उनके नाम से आंबडवेकर’ हटाकर ‘अम्बेडकर ‘ उपनाम जोड़ दिया। वह ब्राह्मण शिक्षक उनसे विशेष स्नेह करते थे। तब से आज तक वे अम्बेडकर नाम से जाने जाते हैं।
बाद में रामजी सकपाल परिवार के साथ मुंबई आ गए। अप्रैल 1906 में नौ साल की लड़की रमाबाई से उनकी शादी कराई गई थी। तब भीमराव लगभग 15 वर्ष के थे। उस समय अम्बेडकर पांचवी कक्षा में पढ रहे थे। उन दिनों भारत में बाल-विवाह काफी प्रचलन में था। और भी कही कही जगह देखने को मिलता है।
डॉ भीमराव अम्बेडकर की शिक्षा
प्राथमिक शिक्षा
अम्बेडकर ने सातारा नगर के राजवाड़ा चौक पर स्थित सरकारी हाईस्कूल में 7 नवम्बर 1900 को अंग्रेजी की पहली कक्षा में प्रवेश लिया। 07 नवंबर को महाराष्ट्र में विद्यार्थी दिवस रूप में मनाया जाता हैं। क्योकि इसी दिन अम्बेडकर की शिक्षा का आरम्भ हुआ था। उन्हें ‘भिवा’ कहकर बुलाया जाता था। स्कूल में उस समय ‘भिवा रामजी अम्बेडकर ‘ उनकी उपस्थिति पंजिका में क्रमांक – 1914 पर लिखा था। जब अम्बेडकर ने अंग्रेजी की चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की तब यह अछूतों में असामान्य बात थी। इसलिए भीमराव की इस सफलता को अछूतों के बीच सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया गया। उनके परिवार के मित्र एवं लेखक दादा केलुस्कर द्वारा स्वलिखित ‘बुद्ध की जीवनी’ उन्हें भेंट दी गयी। इसे पढकर उन्होंने पहली बार गौतम बुद्ध व बौद्ध धर्म को जाना एवं उनकी शिक्षा से प्रभावित हुए।
माध्यमिक शिक्षा
1897 में अम्बेडकर का परिवार मुंबई चला गया जहां उन्होंने एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित सरकारी हाईस्कूल में आगे कि शिक्षा हासिल की।
बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई
1907 में उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया। जो की बॉम्बे विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ था। इस स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले अम्बेडकर अपने समुदाय से पहले व्यक्ति थे। सन्न 1912 तक उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में कला स्नातक (बी॰ए॰) की डिग्री हासिल की। उन्होंने बड़ौदा राज्य सरकार के साथ काम भी किया।
कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई
1913 में अम्बेडकर 22 वर्ष की आयु में संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय द्वारा स्थापित एक योजना के अंतर्गत न्यूयॉर्क नगर स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन वर्ष के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। वहां पहुँचने के तुरन्त बाद वे लिविंगस्टन हॉल में पारसी मित्र नवल भातेना के साथ रहने लग गए। जून 1915 में उन्होंने अपनी कला स्नातकोत्तर (एम॰ए॰) परीक्षा पास की। जिसमें अर्थशास्त्र प्रमुख विषय, और समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान यह अन्य विषय थे। उन्होंने स्नातकोत्तर के लिए एंशियंट इंडियन्स कॉमर्स (प्राचीन भारतीय वाणिज्य) विषय पर शोध कार्य प्रस्तुत किया।
1916 में उन्हें अपना दूसरा शोध कार्य नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया – ए हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी के लिए दूसरी कला स्नातकोत्तर प्रदान की गई। बाद में वे लंदन चले गए। 1916 में अपने तीसरे शोध कार्य इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की। अपने शोध कार्य को प्रकाशित करने के बाद 1927 में अधिकृत रुप से पीएचडी प्रदान की गई। 09 मई को
उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां,उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। यह उनका पहला प्रकाशित पत्र था। 03 वर्ष तक की अवधि के लिये मिली हुई छात्रवृत्ति का उपयोग उन्होंने केवल दो वर्षों में अमेरिका में पाठ्यक्रम पूरा करने में किया। और वे सन्न 1916 में लंदन चले गए।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में स्नातकोत्तर की पढ़ाई
अक्टूबर 1916 में वे लंदन गये और वहाँ पर उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स के लिए प्रवेश लिया और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी प्रवेश लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की डॉक्टरेट (Doctorate) थीसिस पर काम करना शुरू किया। जून 1917 में अम्बेडकर विवश होकर अपना अध्ययन अस्थायी तौर पर बीच में ही छोड़ कर भारत लौट आए क्योंकि बड़ौदा राज्य से जो छात्रवृत्ति उन्हें मिल रही थी वह छात्रवृत्ति समाप्त हो गई थी। जब वे भारत लौट रहे थे तब उनकी पुस्तक संग्रह को एक अलग जहाज से भेजा गया था जिसे जर्मन पनडुब्बी के टारपीडो द्वारा डुबो दिया गया। यह प्रथम विश्व युद्ध का काल था। उन्हें चार साल के भीतर अपने थीसिस के लिए वापिस लंदन लौटने की अनुमति मिली।
उन्होंने बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम शुरू किया परन्तु अपने जीवन में अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी शिक्षक और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। बाद में अपने एक जानकर अंग्रेज अधिकारी की सिफारिश पर मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी।
बाद में 1920 में कोल्हापुर के शाहू महाराज व अपने पारसी मित्र के सहयोग और कुछ निजी बचत के सहयोग से अम्बेडकर एक बार फिर से इंग्लैंड वापस गए। सन्न 1921 में विज्ञान स्नातकोत्तर (MSC) की डिग्री हासिल की, जिसके लिए उन्होंने ‘प्रोवेन्शियल डीसेन्ट्रलाईज़ेशन ऑफ इम्पीरियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ खोज ग्रन्थ प्रस्तुत किया था। उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डिग्री प्रदान की और उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। सन्न 1923 में उन्होंने अर्थशास्त्र में डी॰एससी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) उपाधि प्राप्त की। उनकी थीसिस “द प्राब्लम आफ द रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन” (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान) पर थी।
बाद में डॉ भीमराव अम्बेडकर लंदन से अपनी पढ़ाई पूर्ण करके भारत लौटते समय तीन महीने जर्मनी में रुके। जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। परन्तु समय की कमी से अम्बेडकर विश्वविद्यालय में अधिक नहीं रुक सकें। उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स (एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953) सम्मानित उपाधियाँ थीं।
डॉ भीमराव अम्बेडकर का दूसरा विवाह
सन्न 1935 में अम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की लंबी बीमारी के कारण मृत्यु हो गयी थी। सन्न 1940 के दशक के अंत में भारतीय संविधान के मसौदे को पूरा करने के बाद वह नींद के अभाव से पीड़ित थे। उनके पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द था और इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं ले रहे थे। अम्बेडकर उपचार के लिए मुंबई गए जहाँ वे डॉ शारदा कबीर से मिले। बाद में उन्होंने डॉ शारदा कबीर से 15 अप्रैल 1948 को नई दिल्ली में अपने घर पर विवाह कर लिया था। अम्बेडकर के लिए डॉक्टरों ने एक ऐसे जीवन साथी की सिफारिश की जो एक अच्छा खाना पकाने वाली हो और उनकी देखभाल करने के लिए चिकित्सा ज्ञान हो। डॉ॰ शारदा कबीर ने विवाह के बाद सविता अम्बेडकर नाम अपनाया और उनकी जीवन भर सेवा की। सविता अम्बेडकर का 29 May 2003 को नई दिल्ली के मेहरौली में 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया।
डॉ भीमराव अम्बेडकर का व्यक्तिगत जीवन
अम्बेडकर के दादा जी का नाम मालोजी सकपाल था तथा पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। सन्न 1896 में अम्बेडकर जब पाँच वर्ष के बालक थे तब उनकी माँ की मृत्यू हुई थी। इसलिए बालक भीवा को उनकी बुआ मीराबाई ने संभाला था। जो उनके पिता की बडी बहन थी। मीराबाई के कहने पर रामजी ने जीजाबाई से पुनर्विवाह किया ताकि बालक भीवा को माँ का प्यार मिल सके। बालक भीवा जब पाँचवी कक्षा पढ रहे थे तब उनकी शादी रमाबाई से हुई। रमाबाई और भीमराव को पाँच बच्चे भी हुए-जिनमें से चार पुत्र: यशवंत, रमेश, गंगाधर, राजरत्न और एक पुत्री: इन्दु थी। किंतु ‘यशवंत’ को छोड़कर सभी संतानों की बचपन में ही मृत्यु हो गई थीं।
गुरु और उपास्य देवता:- डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि उनका जीवन तीन गुरुओं और तीन उपास्यों से सफल बना है। उन्होंने जिन तीन महान व्यक्तियों को अपना गुरु माना ,उनके पहले गुरु थे गौतम बुद्ध, दूसरे थे संत कबीर और तीसरे गुरु थे महात्मा ज्योतिराव फुले थे। और उनके तीन उपास्य थे- ज्ञान, स्वाभिमान और शील।
अम्बेडकरवाद
”अम्बेडकरवाद” अम्बेडकर की विचारधारा तथा दर्शन हैं। स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, बौद्ध धर्म, विज्ञानवाद, मानवतावाद, सत्य, अहिंसा आदि के विषय अम्बेडकरवाद के सिद्धान्त हैं। छुआछूत को नष्ट करना, दलितों में सामाजिक सुधार, भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार एवं भारतीय संविधान में निहीत अधिकारों तथा मौलिक अधिकारों की रक्षा करना, एक नैतिक तथा जातिमुक्त समाज की रचना और भारत देश की प्रगती यह प्रमुख उद्देश समायोजित हैं। अम्बेडकरवाद सामाजिक, राजनितीक तथा धार्मिक विचारधारा हैं।
बाबा साहेब का छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष
डॉ भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा रियासत द्वारा शिक्षित थे। इसीलिए वे उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया। लेकिन जातिगत छुआछूत के कारण उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने ने कहा था कि “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है”। उन्होंने इस घटना का उल्लेख अपनी आत्मकथा- ”वेटिंग फॉर ए वीजा” में किया था। इसके बाद उन्होंने अपने परिवार का पालन पोषण करने लिए काम ढूंढ़ना शुरू किया। उन्होंने लेखाकार के रूप में और एक निजी शिक्षक के रूप में भी काम किया। साथ में एक निवेश परामर्श व्यवसाय की स्थापना की परन्तु जब लोगो को पता चला कि वे एक अछूत जाती से है तो लोगो ने उनके पास आना बंद कर दिया। इस तरह उनका यह काम विफल रहा। 1918 में बाबा साहेब मुंबई में कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने। छात्रों के साथ उनका रवैया सफल रहा परन्तु अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के बर्तन साझा करने पर विरोध किया।
”भारत सरकार अधिनियम 1919’’ तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये अलग निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की। सन्न 1920 में मुंबई से उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया। अम्बेडकर ने इस प्रकाशन का प्रयोग रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के लिए भारतीय राजनैतिक समुदाय की आलोचना करने के लिये किया। दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया। तब वे अम्बेडकर से प्रभावित होकर उनके साथ भोजन किया जिससे रूढ़िवादी समाज मे हलचल मच गयी थी।
मुंबई उच्च न्यायालय में विधि का अभ्यास करते हुए उन्होंने अछूतों की शिक्षा को बढ़ावा देने और ऊपर उठाने के प्रयास किये। उनका पहला संगठित प्रयास केंद्रीय संस्थान बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना करना था जिसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देना था। दलित अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाएं निकालीं।
सन्न 1927 तक डॉ अम्बेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन आरम्भ करने का निर्णय किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाया। और उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया। उन्होंने महाड शहर में अछूत समुदाय को भी नगर की चवदार जलाशय से पानी लेने का अधिकार दिलाने के लिये सत्याग्रह चलाया।
1927 के अंत में सम्मेलन में अम्बेडकर ने जाति भेदभाव और “छुआछूत” को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति की सार्वजनिक रूप से निंदा की। उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जलाईं। 25 दिसंबर 1927 को उन्होंने हजारों अनुयायियों के नेतृत्व में मनुस्मृति की प्रतियों को जलाया। इसकी स्मृति में प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस के रूप में अम्बेडकरवादियों और हिंदू दलितों द्वारा मनाया जाता है।
सन्न 1930 में अम्बेडकर ने तीन महीने की पूर्ण तैयारी के बाद कालाराम मन्दिर सत्याग्रह आरम्भ किया। कालाराम मन्दिर आंदोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए। जिससे नाशिक की सबसे बड़ी प्रक्रियाएं हुईं। जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था। स्काउट्स का एक बैच महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प के साथ गए थे। जब वे द्वार तक पहुँचने ही वाले थे किन्तु द्वार ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा बंद कर दिए गए।
पुणे समझौता और गोलमेज सम्मेलन (भारत)-पूना पैक्ट
अछूतो को मौलिक अधिकार दिलाने के लिए कर रहे संघर्ष के कारण अम्बेडकर सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और महात्मा गाँधी की भी आलोचना की। उन्होंने उन पर अछूत समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया।अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की असफलताओं से भी असंतुष्ट थे। उन्होंने अछूत समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों की ही कोई दखल ना हो। लंदन में 8 अगस्त 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा। उन्होंने कहा कि शोषित वर्ग की सुरक्षा सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने पर ही हो सकती है।
डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की आलोचना की। उनकी अछूत समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के कारण बाबा साहेब अम्बेडकर को सन्न 1931 मे लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी आमंत्रित किया गया। इस सम्मलेन उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर गांधी से कठोर बहस हुई। अंततः ब्रिटिश अधिकारी अम्बेडकर के विचारों से सहमत हुए।गाँधी जी धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी थे और उन्होंने कहा कि यह हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। गाँधी जी का मानना था कि सवर्णों को छुआछूत भूलाने के लिए तथा ह्रदयपरिवर्तन होने के लिए कुछ वर्षों की अवधि दी जानी चाहिए। परन्तु पुना सन्धि के कई दशको तक छुआछूत का पालन होता रहा।
सन्न 1932 में ब्रिटिश अधिकारियों ने डॉ भीमराव अम्बेडकर के विचारों से सहमत होते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की। अम्बेडकर कम्युनल अवार्ड की घोषणा भी इसी गोलमेज सम्मेलन का परिणाम थी। अतः अम्बेडकर द्वारा उठाई गई राजनैतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका में दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्राप्त हुआ। एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे तथा दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी मिली। इस प्रकार दलितों के वोट से ही दलित प्रतिनिधि चुना जाता था।अब दलित प्रतिनिधि को चुनने में सामान्य वर्ग की कोई भूमिका शेष नहीं थी। वहीं दलित वर्ग अपने दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुन सकता था। इस तरह दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्याओं को अच्छी तरह से समझ सकता था। लेकिन सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के लिए उनकी समस्याओं को समझना जरुरी नहीं था।
जब कम्युनल अवार्ड की घोषणा हुई तब गाँधी जी पूने की यवरड़ा जेल में थे। गाँधी जी ने इसे बदलवाने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। परन्तु उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया गया। तब उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी अम्बेडकर ने कहा कि “यदि गाँधी जी देश की स्वतंत्रता के लिए व्रत रखा होता तो यह अच्छा होता,लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो कि बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाईयों, मुसलमानों और सिखों को मिले पृथक निर्वाचिका के अधिकार को लेकर गाँधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई। अम्बेडकर ने कहा कि गाँधी जी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए। उन्होंने कहा कि गाँधी जी की जान बचाने के लिए वह दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते। अब मरण व्रत के कारण गाँधी जी की तबियत लगातार ख़राब होती जा रही थी। जिसकी वजह से पूरा हिंदू समाज अम्बेडकर का विरोधी बन गया।
डॉ भीमराव अम्बेडकर ने बढ़ते हुए विरोध को देखते हुए 24 सितम्बर 1932 को शाम पाँच बजे यरवडा जेल गाँधी जी से मिलने पहुँचे। और इस तरह यहाँ पर गाँधी जी और अम्बेडकर के बीच समझौता हुआ। जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते मे बाबा साहेब ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की। लेकिन साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की जगह पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। इसके साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त धनराशि तय कराई गयी और सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। इस तरह से अम्बेडकर ने महात्मा गांधी की जान बचाई।
परन्तु डॉ भीमराव अम्बेडकर इस समझौते से असंतुष्ट थे। उन्होंने गाँधी के इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उनकी माँग से पीछे हटने के लिये गाँधी जी द्वारा खेला गया एक नाटक बताया। सन्न 1942 में अम्बेडकर ने इस समझौते का बहिष्कार किया। ‘‘स्टेट ऑफ मायनॉरिटी’’ इस ग्रंथ में भी पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की गयी हैं। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी द्वारा इसके बहिष्कार के लिए कई सभाएँ हुई।
बाबा साहेब धर्म के द्वारा परिवर्तन की घोषणा
10-12 साल तक अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दु समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन न हुआ। बल्कि बाबा साहेब की निंदा व अपमान ही किया। बाबा साहेब ने कहा कि “हमने हिन्दू समाज में समानता का अधिकार प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयास और सत्याग्रह किए परन्तु विफल रहा। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है। हिन्दू समाज का मत था कि “मनुष्य धर्म के लिए हैंजबकि डॉ भीमराव अम्बेडकर का मत था कि “धर्म मनुष्य के लिए हैं।” अम्बेडकर ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं है ,जिसमें मनुष्यता का कोई मूल्य नहीं हो। जो अपने ही धर्म के अछूतों को धर्म शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं लेने देता ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं। अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा किसी भी प्रकार की दुश्मनी व हिन्दू धर्म के विनाश के लिए नहीं की थी बल्कि उन्होंने इसका फैसला कुछ मौलिक सिद्धांतों को लेकर किया जिनका हिन्दू धर्म में बिल्कुल तालमेल नहीं था।
13 अक्टूबर 1935 को नासिक के निकट येवला में एक सम्मेलन में अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की घोषणा की। “हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा!” यह बाबा साहेब अम्बेडकर के बोल थे।
बाबा साहेब ने अपने अनुयायियों से भी हिन्दू धर्म छोड़ने कि अपील की। इस धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने अम्बेडकर को करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया। बाबा साहेब भी चाहते थे कि दलित समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार हो,परन्तु वे पराए धन पर आश्रित होना नहीं चाहते थे। वे किसी भी ऐसे धर्म को अपनाना नहीं चाहते थे जिसमे छुआछूत की भेदना भरी हो ,पाखंड हो। 21 मार्च, 1936 को ‘हरिजन’ में गाँधी जी ने लिखा की, ‘जबसे डॉक्टर अम्बेडकर ने धर्म-परिवर्तन की धमकी का बमगोला हिन्दू समाज में फेंका है तब से उन्हें अपने निश्चय से डिगाने की कोशिशें की जा रही हैं। यहीं गाँधी जी आगे एक जगह लिखते हैं– हा ऐसे समय में सवर्ण को अपना हृदय टटोलना जरूरी है।
डॉ भीमराव अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के बाद 21 वर्ष तक विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने इतना लम्बा समय इसीलिए लिया ताकि जब वे धर्म परिवर्तन करे तब ज्यादा से ज्यादा लोग उनके साथ धर्म परिवर्तन करे। अम्बेडकर बौद्ध धर्म को ज्यादा महत्व देते थे। इस धर्म में तीन प्रमुख विशेताएं थी जो किसी अन्य धर्म में नहीं मिलती थी। बौद्ध धर्म प्रज्ञा (अंधविश्वास तथा अतिप्रकृतिवाद के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग), करुणा (प्रेम) और समता (समानता) की शिक्षा देता है।
अम्बेडकर के अनुसार सच्चा धर्म वह है जिसका केन्द्र मनुष्य तथा नैतिकता हो, विज्ञान या बौद्धिक तत्व पर आधारित हो, न कि धर्म का केन्द्र ईश्वर, आत्मा की मुक्ति और मोक्ष। धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना होना चाहिए न कि उसकी उत्पत्ति और अंत की व्याख्या करना। अम्बेडकर जनतांत्रिक समाज व्यवस्था के पक्ष में थे क्योंकि ऐसी स्थिति में धर्म मानव जीवन का मार्गदर्शक बन सकता है। ये सब बातें उन्हें एकमात्र बौद्ध धर्म में मिलीं।
बाबा साहेब अम्बेडकर का बौद्ध धर्म ग्रहण करना
सन् 1950 में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गये। अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेंगे। सन्न 1955 में उन्होंने ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ यानी ‘बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम प्रसिद्ध ग्रंथ, ‘द बुद्ध एंड हिज़ धम्म’ को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के बाद सन्न 1957 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ की प्रस्तावना में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने लिखा हैं कि
मैं बुद्ध के धम्म को सबसे अच्छा मानता हूं। इससे किसी धर्म की तुलना नहीं की जा सकती है। यदि एक आधुनिक व्यक्ति जो विज्ञान को मानता है, उसका धर्म कोई होना चाहिए, तो वह धर्म केवल बौद्ध धर्म ही हो सकता है। सभी धर्मों के घनिष्ठ अध्ययन के पच्चीस वर्षों के बाद यह दृढ़ विश्वास मेरे बीच बढ़ गया है।
“मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण में जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह नव बौद्ध धर्म या नवयान हैं। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। अम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने अपने 5,00,000 अनुयायियो को त्रिरत्न, पंचशील और 22 प्रतिज्ञाएँ देते हुए बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया।
अम्बेडकर व उनका का परिवार कबीर साहेब जी की विचारधारा से बहुत प्रभावित था तथा कबीर साहेब जी के ज्ञान को आधार बनाकर जीवन जीते थे। कबीर परमेश्वर जी ने पाखंडवाद तथा सामाजिक बुराइयों जैसे जातिवाद, गलत धार्मिक मान्यताएं, जीव हिंसा, नशाखोरी, आदि को दूर किया।
डॉ भीमराव अम्बेडकर का राजनीतिक जीवन
बाबा साहेब अम्बेडकर का राजनीतिक जीवन सन्न 1926 में शुरू हुआ था। सन्न 1956 तक राजनीतिक क्षेत्र में विभिन्न पदों पर रह कर अपना योगदान दिया। दिसंबर 1926 में बॉम्बे गवर्नर ने उन्हें बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य के रूप में चयनित किया। वे 1936 तक बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य थे। उन्होंने अपने पद पर रहकर आर्थिक मामलों पर भाषण दिये। 13 अक्टूबर 1935 को अम्बेडकर ने सरकारी लॉ कॉलेज के प्रधानचार्य के रूप में अपना पद ग्रहण किया। उन्होने इस पद पर दो वर्ष तक कार्य किया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के संस्थापक श्री राय केदारनाथ की मृत्यु के बाद इस कॉलेज के गवर्निंग बॉडी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।
सन्न 1936 में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की जो सन्न 1937 के केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 13 सीटें जीती और अम्बेडकर को बॉम्बे विधान सभा के विधायक के रूप में चुना गया। अम्बेडकर सन्न 1942 तक विधानसभा के सदस्य रहे और उन्होंने बॉम्बे विधान सभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी कार्य किया। ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन था जिसकी स्थापना दलित समुदाय के अधिकारों के लिए अभियान चलाने के लिए 1942 में आंबेडकर द्वारा की गई थी। वर्ष 1942 से 1946 तक अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री के रूप में किया।
अम्बेडकर ने 15 मई 1936 को अपनी पुस्तक ”एनीहिलेशन ऑफ कास्ट” प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस पुस्तक में अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की कठोर शब्दों में निंदा की। उन्होंने अछूत समुदाय के लोगों को गाँधी जी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की निंदा की। सन्न 1955 में बीबीसी के साक्षात्कार में उन्होंने गाँधी जी पर गुजराती भाषा के पत्रों में जाति व्यवस्था का समर्थन करना तथा अंग्रेजी भाषा पत्रों में जाति व्यवस्था का विरोध करने का आरोप लगाया।
पाकिस्तान की मांग कर रहे मुस्लिम लीग के लाहौर रिज़ोल्यूशन के बाद अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” 400 पृष्ठों वाली एक पुस्तक लिख डाली। इस बुक में उन्होंने मुस्लिम लीग के मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की कठोर निंदा की। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपना तर्क दिया कि हिंदुओं को मुसलमानों के पाकिस्तान का स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को अलग करने के लिए पंजाब और बंगाल की प्रांतीय सीमाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिए। उन्होंने सोचा कि मुसलमानों को प्रांतीय सीमाओं से निकालने के लिए कोई आपत्ति नहीं हो सकती है।
विद्वान वेंकट ढलीपाल ने कहा कि ”थॉट्स ऑन पाकिस्तान” ने एक दशक तक भारतीय राजनीति को रोका। इसने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया। जो भारत के विभाजन के लिए रास्ता तय कर रहा था। हालांकि अम्बेडकर मोहम्मद अली जिन्नाह और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के भयंकर आलोचक थे। परन्तु उन्होंने अपना तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को अलग कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर ओरअधिक हिंसा बढ़ेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।
उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और अपना मत रखा कि हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद बिना कठोरता अपनाये भी ख़त्म किया जा सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से होते आये है परन्तु आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं। तो क्या हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। उन्होंने कहा कि दो देश बनाना समस्या का हल नहीं है। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के बाद सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। “व्हॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स?” इस किताब में अम्बेडकर ने गाँधी जी और कांग्रेस दोनो पर हमलों की बौछार कर दी। बाबा साहेब ने अम्बेडकर पर ढोंग का आरोप लगाया।
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डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन (शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन) में बदलते देखा परन्तु सन्न 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में खराब प्रदर्शन किया। बाद में वे बंगाल से संविधान सभा में चुने गए थे। जहाँ मुस्लिम लीग सत्ता में थी। अम्बेडकर ने उत्तर मुंबई से 1952 में अपना प्रथम भारतीय लोकसभा चुनाव लड़े लेकिन वे अपने पूर्व सहायक और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलकर से हार गए। सन्न 1952 में अम्बेडकर राज्य सभा के सदस्य बने। सन्न 1954 में उन्होंने भंडारा से उपचुनाव में फिर से लोकसभा के लिए चुनाव लड़े। परन्तु वे इस बार भी तीसरे स्थान पर रहे। और कांग्रेस पार्टी जीती। और सन्न 1957 में दूसरे आम चुनाव तक अम्बेडकर की मृत्यु हो गयी थी।
अम्बेडकर दो बार भारतीय संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत की संसद के सदस्य बने थे। राज्यसभा सदस्य के रूप में बाबा साहेब का प्रथम कार्यकाल 3 अप्रैल 1952 से 2 अप्रैल 1956 के बीच रहा। उनका दूसरा कार्यकाल 3 अप्रैल 1956 से 2 अप्रैल 1962 तक रखा जाना था लेकिन कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही लम्बी बीमारी के कारण 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया।
30 सितंबर 1956 को डॉ भीमराव अम्बेडकर ने “अनुसूचित जाति महासंघ” को खारिज करके “रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया” की स्थापना की घोषणा की परन्तु पार्टी के गठन से पहले ही निधन हो गया। उसके बाद उनके अनुयायियों और कार्यकर्ताओं ने इस पार्टी के गठन की योजना बनाई। पार्टी की स्थापना के लिए 1 अक्टूबर 1957 को नागपुर में प्रेसीडेंसी की एक बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में एन शिवराज, यशवंत अम्बेडकर , पी टी बोराले, एजी पवार, दत्ता कट्टी, डी ए रूपवते उपस्थित थे। 3 अक्टूबर 1957 को रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया गया और एन शिवराज को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक हू वर द शुद्राज़? के माध्यम से हिंदू जाति व्यवस्था में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने का उल्लेख किया है। उन्होंने इस बात पर अमल दिया कि किस तरह से अतिशुद्र, शुद्रों से अलग हैं। 1948 में हू वेयर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी में अम्बेडकर ने हिंदू धर्म की कड़ी निंदा। अम्बेडकर दक्षिण एशिया के इस्लाम धर्म की रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। मुस्लिमो में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के शोषण की आलोचना की। उन्होंने कहा कि एक से अधिक विवाह व महिलाओं को रखैल के दुष्परिणामो को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। जो कि मुस्लिम महिलाओं का एक विशेष दुख था।
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम धर्म में हिंदू धर्म से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ व्याप्त है। परन्तु मुसलमान उन्हें ” भाईचारे ” शब्द का उसे करके छुपा लेते है। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के ख़िलाफ़ भेदभाव और इस्लाम में महिलाओं के शोषण की प्रथा की कड़ी आलोचना की।
पर्दा प्रथा हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो में थी परन्तु उसे धार्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी। उन्होंने लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज सुधारक असफल रहा है। जबकि अन्य मुस्लिम देशों ने अपना सुधार किया है। “सांप्रदायिकता” से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।
संविधान निर्माण
गाँधी जी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद डॉ भीमराव अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी। जब 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली तब कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई। अतः अम्बेडकर को देश के पहले क़ानून एवं न्याय मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया और अम्बेडकर ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए गठित की गयी समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। संविधान निर्माण के कार्य में अम्बेडकर का बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन भी काम आया।
डॉ भीमराव अम्बेडकर एक बुद्धिमान संविधान विशेषज्ञ थे। उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था। अम्बेडकर को “भारत के संविधान का पिता” के कहा जाता है।[
अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान व्यक्तिगत नागरिकों के लिए नागरिक स्वतंत्रता की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए संवैधानिक गारंटी और सुरक्षा देता है। जिसमें धर्म की आजादी, छुआछूत को खत्म करना, और भेदभाव के सभी रूपों का उल्लंघन करना शामिल है।अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के लिए तर्क दिया, और अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के सदस्यों के लिए नागरिक सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों में नौकरियों के आरक्षण की व्यवस्था शुरू करने के लिए असेंबली का समर्थन जीता। भारत के सांसदों ने इन उपायों के माध्यम से भारत की निराशाजनक कक्षाओं के लिए सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और अवसरों की कमी को खत्म करने की उम्मीद की। संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया गया था। अपने काम को पूरा करने के बाद बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा-
मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।
डॉ भीमराव अम्बेडकर का निधन
लगातार दिन रात पढ़ाई करने व संविधान निर्माण में व्यस्तता के कारण 1948 से अम्बेडकर डाइबिटीज से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक उनकी हालत बदतर होती जा रही थी। इसी समय काम निंद्रा की वजह से उनकी आँखे भी कमजोर होती जा रही थी। उस समय राजनितिक मुद्दे ज्यादा हुआ करते थे जिसकी वजह से उनका स्वास्थय दिनों दिन ख़राब होता जा रहा था। सन्न 1955 में किये गये लगातार कार्य ने उन्हें शारारिक रूप से तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि भगवान बुद्ध और उनका धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का निधन दिल्ली में उनके घर मे हो गया। 64 वर्ष व 7 महीने की आयु में लम्बी बीमारी के चलते हुए उनका निधन हो गया।
दिल्ली से विशेष विमान द्वारा उनके पार्थिव शरीर को मुंबई में उनके राजगृह में लाया गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में बाबा साहब अम्बेडकर का अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया।
अम्बेडकर का एक स्मारक उनके दिल्ली में स्थित घर 26 अलीपुर रोड पर स्थापित किया गया है। अम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। सन्न 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।
हर साल 20 लाख से अधिक लोग उनकी जयंती (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस (14 अक्टूबर) को चैत्यभूमि (मुंबई), दीक्षाभूमि (नागपूर) तथा भीम जन्मभूमि (महू) में उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित होते हैं। यहाँ हजारों किताबों की दुकान स्थापित की गई हैं और किताबें बेची जाती हैं। आम्बेडकर का उनके अनुयायियों को संदेश था – “शिक्षित बनो, संघटित बनो, संघर्ष करो”।
पत्रकारिता
अम्बेडकर एक सफल पत्रकार एवं प्रभावी सम्पादक थे। उन्हें विश्वास ता कि अखबारों के माध्यम से समाज में उन्नती होंगी । अम्बेडकर आन्दोलन में अखबार को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने शोषित एवं दलित समाज में जागृति लाने के लिए कई पत्र एवं पांच पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं सम्पादन किया। इनसे उनके दलित आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण सहायता मिली। उन्होंने कहा हैं की- “किसी भी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए अखबार की आवश्यकता होती हैं, अगर आन्दोलन का कोई अखबार नहीं है तो उस आन्दोलन की हालत पंख तुटे हुए पंछी की तरह होती हैं।”
अम्बेडकर ही दलित पत्रकारिता के प्रमुख स्तम्भ थे क्योंकी वे दलित पत्रिकारिता के प्रथम सम्पादक, संस्थापक एवं प्रकाशक थे। अम्बेडकर ने सभी पत्र मराठी भाषा में ही प्रकाशित किये क्योंकि उनका कार्य क्षेत्र महाराष्ट्र था और मराठी वहां की जन भाषा है। उस समय महाराष्ट्र की शोषित एवं दलित जनता ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी। वे केवल मराठी भाषा ही समझ पाते थे। बाबा साहेब अम्बेडकर ने कई दशकों तक पांच मराठी पत्रिकाओं का सम्पादन किया था जिसमे मूकनायक (1920), जनता (1930), बहिष्कृत भारत (1927), समता (1928) एवं प्रबुद्ध भारत (1956) सम्मिलित हैं। इन पाँचो पत्रों में बाबासाहब आम्बेडकर देश के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते थे। साहित्यकार व विचारक गंगाधर पानतावणे ने 1987 में भारत में पहली बार अम्बेडकर की पत्रकारिता पर पी.एच.डी. के लिए शोध प्रबंध लिखा। पानतावने ने आंबेडकर के बारे में लिखा हैं कि “इस मुकनायक ने बहिष्कृत भारत के लोगों को प्रबुद्ध भारत में लाया। बाबासाहब एक महान पत्रकार थे।”
डॉ भीमराव अम्बेडकर की पुस्तकें व अन्य रचनाएँ
बाबा साहब अम्बेडकर प्रतिभाशाली एवं जुंझारू लेखक थे। उन्हें पड़ने-लिखने व लेखन में बहुत रूचि थी। उन्होंने मुंबई में अपने राजगृह में ही एक समृद्ध पुस्तकालय का निर्माण किया हुआ था। इसमें उनकी 50 हजार से भी अधिक किताबें थी। अपने लेखन से उन्होंने दलितों व देश की समस्याओं पर प्रकाश डाला। 32 किताबें और मोनोग्राफ (22 पुर्ण तथा 10 अधुरी किताबें), 10 ज्ञापन, साक्ष्य और वक्तव्य, 10 अनुसंधान दस्तावेज, लेखों और पुस्तकों की समीक्षा एवं 10 प्रस्तावना और भविष्यवाणियाँ इतनी सारी उनकी अंग्रेजी भाषा की रचनाएँ हैं। उन्हें 11 भाषाओं का ज्ञान था। जिसमें मराठी (मातृभाषा), अंग्रेजी, हिन्दी, पालि, संस्कृत, गुजराती, जर्मन, फारसी, फ्रेंच, कन्नड और बंगाली ये भाषाएँ शामील है। अम्बेडकर ने अपने समकालिन सभी राजनेताओं की तुलना में सबसे अधिक लेखन किया हैं। बाबा साहब ने अधिकांश लेखन अंग्रेजी में किया हैं।
सामाजिक संघर्ष में सक्रिय और व्यस्त होने के साथ उनके द्वारा रचित अनेक किताबें, निबंध, लेख एवं भाषणों का बड़ा संग्रह है। वे असामान्य प्रतिभा के धनी थे। उनके साहित्यिक रचनाओं को विशिष्ट सामाजिक दृष्टिकोण और विद्वता के लिए जाना जाता है जिसमें उनकी दूरदृष्टि की झलक मिलती है। बाबा साहब की पुस्तकें भारत ही नहीं बल्कि पुरे विश्व में बहुत पढ़ी जाती है। महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने बाबा साहब अम्बेडकर के सम्पूर्ण साहित्य को कई खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनायी है और 15 मार्च 1976 को डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर मटेरियल पब्लिकेशन कमिटी की स्थापना की गयी। 2019 तक ”डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज” नाम से 22 खण्ड अंग्रेजी भाषा में पब्लिश हो चुके हैं। इनकी पृष्ठ संख्या 15 हजार से भी अधिक हैं।
इस योजना के पहले खण्ड का प्रकाशन अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 1979 को हुआ। इन 22 वोल्युम्स में वोल्युम 14 दो भागों में, वोल्युम 17 तीन भागों में, वोल्युम 18 तीन भागों में व संदर्भ ग्रंथ 2 हैं अर्थात कुल 29 किताबें पब्लिश की गयी हैं। सन्न 1987 से उनका मराठी भाषा में अनुवाद करने का काम ने शुरू किया गया है परन्तु यह कार्य अभी तक पूर्ण नहीं हुआ। डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस’ के खण्डों के महत्व एवं लोकप्रियता को देखते हुए भारत सरकार के ‘’सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय” के डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान ने इन खण्डों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना बनायी। अतः अभी तक “बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर: संपूर्ण वाङ्मय” नाम से 21 खण्ड हिन्दी भाषा में पब्लिस किये जा चुके हैं। 21 हिन्दी खंड केवल 10 अंग्रेजी खंडो का अनुवाद हैं। इन हिन्दी खण्डों के कई संस्करण पब्लिश किये जा चुके हैं। अम्बेडकर का संपूर्ण लेखन साहित्य महाराष्ट्र सरकार के पास हैं। जिसमें से उनके आधे से अधिक साहित्य अभी तक पब्लिश नहीं हुए है।
अम्बेडकर का साहित्य
पुस्तकें
- एडमिनिस्ट्रेशन एंड फिनांसेज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी (एम॰ए॰ की थीसिस)
- द एवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविंशियल फिनांसेज़ इन ब्रिटिश इंडिया (पीएच॰डी॰ की थीसिस, 1917, 1925 में प्रकाशित )
- द प्राब्लम ऑफ़ द रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन (डीएस॰सी॰ की थीसिस, 1923 में प्रकाशित)
- अनाइहिलेशन ऑफ कास्ट्स (जाति प्रथा का विनाश) (मई 1936
- विच वे टू इमैनसिपेशन (मई 1936)
- फेडरेशन वर्सेज़ फ्रीडम (1936)
- पाकिस्तान एंड द पर्टिशन ऑफ़ इण्डिया/थॉट्स ऑन पाकिस्तान (1940)
- रानडे, गांधी एंड जिन्नाह (1943)
- मिस्टर गांधी एण्ड द एमेन्सीपेशन ऑफ़ द अनटचेबल्स (1945)
- वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स ? (जून 1945)
- कम्यूनल डेडलाक एण्ड अ वे टू साल्व इट (मई 1946)
- हू वेर दी शूद्राज़ ? (अक्तुबर 1946)
- भारतीय संविधान में परिवर्तन के लिए कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों का, अनुसूचित जनजातियों (अछूतों) पर दी गयी समालोचना (1946)
- द कैबिनेट मिशन एंड द अंटचेबल्स (1946)
- स्टेट्स एण्ड माइनोरीटीज (1947)
- महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक प्रोविन्स स्टेट (1948)
- द अनटचेबल्स: हू वेर दे आर व्हाय द बिकम अनटचेबल्स (अक्तुबर 1948)
- थॉट्स ऑन लिंगुइस्टिक स्टेट्स: राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रस्तावों की समालोचना (प्रकाशित 1955)
- द बुद्धा एंड हिज धम्मा (भगवान बुद्ध और उनका धम्म) (1957)
- रिडल्स इन हिन्दुइज्म
- डिक्शनरी ऑफ पाली लॅग्वेज (पालि-इग्लिश)
- द पालि ग्रामर (पालि व्याकरण)
- वेटिंग फ़ॉर ए वीज़ा (आत्मकथा) (1935-1936)
- ए पीपल ऐट बे
- द अनटचेबल्स और द चिल्ड्रेन ऑफ़ इंडियाज़ गेटोज़
- केन आय बी ए हिन्दू?
- व्हॉट द ब्राह्मिण्स हैव डन टू द हिन्दुज
- इसेज ऑफ भगवत गीता
- इण्डिया एण्ड कम्यूनिज्म
- रेवोलोटिओं एंड काउंटर-रेवोलुशन इन एनशियंट इंडिया
- द बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स (बुद्ध और कार्ल मार्क्स)
- कोन्स्टिट्यूशन एंड कोस्टीट्यूशनलीज़म
ज्ञापन, साक्ष्य और वक्तव्य
- On Franchise and Framing Constituencies (1919)
- Statement of Evidence to the Royal Commission of Indian Currency (1926)
- Protection of the Interests of the Depressed Classes (मई 29, 1928)
- State of Education of the Depressed Classes in the Bombay Presidency (1928)
- Constitution of the Government of Bombay Presidency (मई 17, 1929)
- A Scheme of Political Safeguards for the protection of the Depressed in the Future Constitution of a Self- governing India (1930)
- The Claims of the Depressed Classes for Special Represention (1931)
- Franchise and Tests of Untouchability (1932)
- The Cripps Proposals on Constitutional Advancement(जुलाई 18, 1942)
- Grievances of the Schedule Castes (अक्तुबर 29, 1942)
अनुसन्धान दस्तावेज, लेख और पुस्तकों की समीक्षा
- कास्ट्स इन इण्डिया : देयर जीनियस, मेकैनिज़म एंड डिवेलपमेंट (1918)
- मिस्टर रसेल एंड द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोसाइटी (1918)
- स्माल होलिंग्स इन इंडिया एण्ड देयर रेमिडीज (1918)
- करेंसी एंड एक्सचेंजेज़ (1925)
- द प्रेजेंट प्रॉब्लम ऑफ द इंडियन करेंसी (अप्रैल 1925)
- रिपोर्ट ऑफ़ टैक्सेशन इन्क्वारी समिति (1926)
- थॉट्स ऑन द रिफोर्म ऑफ़ लीगल एजुकेशन इन द बॉम्बे प्रेसीडेंसी (1936)
- राइजिंग एंड फाल ऑफ हिन्दू वुमन (1950)
- नीड फॉर चेक्स एंड बैलेंसेज़ (अप्रैल 23, 1953)
- बुद्ध पूजा पाठ (मराठी में) (नवम्बर 1956)
प्रस्तावना और भविष्यवाणियाँ
- अनटचेबल वर्कर्स ऑफ़ बॉम्बे सिटी की प्रस्तावना (1938)
- पुस्तक: कमोडिटी एक्सचेंज की प्रस्तावना (1947)
- पुस्तक, द एसेंस ऑफ़ बुद्धिजम की भूमिका(1948)
- सोशल इन्शुरन्स एंड इंडिया की प्रस्तावना (1948)
- पुस्तक, राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन की भूमिका (1948)
मेरा नाम गोविन्द प्रजापत है। मैं talentkiduniya.com का फाउंडर हूँ। मुझे स्कूल के समय से ही हिंदी में लेख लिखने और अपने अनुभव को लोगो से शेयर करने में रूचि रही है। मैं इस ब्लॉग के माध्यम से अपनी नॉलेज को हिंदी में लोगो के साथ शेयर करता हूँ।