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महाराणा प्रताप सिंह की जीवन कथा : Maharana Pratap Singh History In Hindi

महाराणा प्रताप सिंह की जीवन कथा : Maharana Pratap Singh History In Hindi

महाराणा प्रताप सिंह का इतिहास और जीवन परिचय ( Maharana Pratap Singh Life Story in Hindi ) : महाराणा प्रताप सिंह मेवाड़ साम्राज्य के महान शूरवीर, बलशाली, बुद्धिमानी और पराक्रमी शासक थे। इन्होंने मुगलों की नाक में काफी दम कर रखा था। महाराणा को सर कटाना मंजूर था, लेकिन मुगलों के सामने सर झुकाना मंजूर नहीं था। उन्होंने अंत समय तक मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की थी।

इस लेख में आपको राजपुताना के बाहुबली महाराणा प्रताप सिंह का इतिहास और जीवन परिचय ( Maharana Pratap Singh History In Hindi ) के बारे में जानकारी दी जा रही है। महाराणा प्रताप सिंह की जीवनी ( Maharana Pratap Singh Biography In Hindi ) युवाओं के लिए एक प्रेरणा और आदर्श व्यक्तित्त्व है।

महाराणा प्रताप सिंह का जीवन परिचय – Maharana Pratap Singh Biography In Hindi

नाम महाराणा प्रताप सिंह
उपनाम कीका , महाराणा प्रताप
जन्म 9 मई 1540
जन्म स्थान कुम्भलगढ़ दुर्ग
आयु 57 वर्ष
पिता का नाम राणा उदय सिंह द्वितीय
माता का नाम महारानी जयवंताबाई
पत्नी का नाम महारानी अजबदी पंवार
बच्चे 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ
भाई 3 भाई – विक्रम सिंह, शक्ति सिंह, जगमाल सिंह
बहन चाँद कँवर, मान कँवर ( सौतेली )
उत्ताधिकारी अमर सिंह प्रथम
राज घराना सिसोदिया वंश
लम्बाई 7 फीट 5 इंच
वजन 80 kg
मृत्यु 19 जनवरी 1597
मृत्यु स्थान चावंड, राजस्थान
हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून 1576 , मुगल सेना और महाराणा प्रताप की सेना के बीच

महाराणा प्रताप सिंह का प्रारंभिक जीवन – Maharana Pratap Singh Life Story in Hindi

महाराणा प्रताप के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में दो धारणाएँ बनी हुई है। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ किले में हुआ था। महाराणा प्रताप का जन्म राणा उदयसिंह और महारानी जयवंता बाई के घर में हुआ था।

लेखक विजय नाहर की पुस्तक “हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप” के अनुसार महाराणा प्रताप के जन्म के समय राणा उदयसिंह पर संकट के बदल छाये हुए थे। वे युद्ध की स्थिति व असुरक्षा से घिरे हुए थे। उस समय कुंभलगढ़ किसी भी तरह से सुरक्षित नही था।

जोधपुर के शक्तिशाली राजा मालदेव राठौड़ उन दिनों में उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली व सम्पन शासक थे। अतः जयवंता बाई के पिता और पाली के शासक सोनगरा अखैराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त व सेनानायक था।

इस प्रकार पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था। अतः रणबंका राठौड़ो की सेना के सामने अकबर की सेना बहुत कम थी। इसलिए जयवंता बाई को पाली के राजमहलों में भेजा गया था। पाली के राजमहलों में ही प्रताप का जन्म हुआ।

प्रताप के जन्म का समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने युद्ध में विजय श्री प्राप्त की और चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इस प्रकार लेखक विजय नाहर के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ था।

राणा उदयसिंह और महारानी जयवंता बाई महाराणा प्रताप के माता-पिता थे। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ व्यतीत हुआ था। प्रताप ने भीलों के साथ में रहते हुए कई तरह की युद्ध कला सीख ली थी। महाराणा प्रताप का बचपन का नाम कीका था। उन्हें यह नाम भील समुदाय से मिला था। भील अपने पुत्र को कीका कहकर सम्बोधित करते थे।

प्रताप बचपन से ही चतुर व बुद्धिशाली थे। बाल्यकाल में उन्होंने भीलों के साथ में छापामार युद्ध की कला ग्रहण की थी। जंगलो में युद्ध करने की कला उन्हें अच्छे से आती थे। बालक प्रताप में राजा बनने के हर गुण थे। लेकिन उनके समय में पारिवारिक षड़यंत्र बहुत अधिक थे। सिंहासन को लेकर झगड़े होना आम बात थी।

महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक

राणा उदयसिंह के दूसरी रानी धीरबाई ( जिसे इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है ) अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी। लेकिन राज्य की जनता प्रताप को अपना राजा बनाना चाहती थी। प्रताप अपने सभी भाइयों में सबसे अलग थे। वे अपनी प्रजा से बहुत प्यार करते थे।

जबकि जगमाल को प्रजा की कोई चिंता नहीं थी। उन्हें केवल सिंहासन से प्रेम था। जब महाराणा प्रताप को उत्तराधिकारी घोषित किया था, तब जगमाल अकबर की सेवा में चला गया था। महाराणा प्रताप का सर्वप्रथम राज्याभिषेक 28 फरवरी 1572 में गोगुन्दा में हुआ था। लेकिन परम्परा अनुसार महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही जोधपुर के शासक राव चन्द्रसेन राठौड़ की उपस्थित में कुम्भलगढ़ में हुआ था।

राजपूत राजाओं का महाराणा प्रताप के खिलाफ होना

अकबर की बढ़ती ताकत और विशाल सेना के सामने भारत-वर्ष के अनेक राजाओं ने आत्म-समर्पण कर दिया था। राजपुताना से लगभग सभी राजा बिना लड़े ही समर्पण कर चुके थे। लेकिन राणा उदय सिंह और प्रताप अकबर के सामने झुके नहीं थे। अकबर महाराणा प्रताप को बंदी बनाकर अपना गुलाम बनाना चाहता था।

अकबर ने राजपूत राजाओं के साथ मिलकर चितोड़गढ़ किले को जीत लिया था। लेकिन वह राणा उदय सिंह और प्रताप को बंदी नहीं बना सका। राणा उदय सिंह अपने परिवार को लेकर उदयपुर की तरफ अरावली पर्वतमाला की श्रंखला में चला गया था। इसके बाद उन्होंने उदयपुर नगर को बसाया था।

राणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप ने सिंहासन संभाला। प्रताप के खिलाफ अनेक राजपूत राजा थे। सभी चाहते थे कि वह अकबर की स्वाधीनता स्वीकार कर ले। अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था। इसके लिए अकबर ने प्रताप के साथ संधि करने के लिए चार राजदूत नियुक्त किये थे।

सितम्बर 1572 ई. में अकबर ने जलाल खाँ को प्रताप के पास संधि करने के लिए भेजा, लेकिन प्रताप स्वाभिमानी थे। उन्हें गुलामी मंजूर नहीं थी। इसके बाद सन्न 1573 ई. में मानसिंह, सितम्बर 1573 ई. में भगवानदास और दिसम्बर1573 ई. राजा टोडरमल को संधि के लिए भेजा गया। लेकिन अकबर को केवल निराशा ही मिली।

प्रताप के न झुकने पर और मानसिंह के उकसाने पर अकबर ने युद्ध का ऐलान किया था। यह ऐतिहासिक युद्ध हल्दी घाटी में लड़ा गया था, जिसे इतिहास में हल्दी घाटी युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में प्रताप का साथ भीलों ने दिया था। जबकि राजपूत राजा अकबर की तरफ से लड़े थे।

हल्दी घाटी का युद्ध – Haldi Ghati Yudh

हल्दी घाटी का युद्ध इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है। यह युद्ध अकबर की सेना और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून 1576 ईस्वी में  लड़ा गया था। इस युद्ध में मेवाड़ियों का काफी नुकसान हुआ था। अकबर की तरफ से राजा मानसिंह ने सेना का नेतृत्व किया था। जबकि मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था।

युद्ध का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा चुना गया था। इस युद्ध में महाराणा का साथ भील सेना के सरदार राणा पूंजा सोलंकी और मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी ने दिया था। हकीम खाँ सूरी ने अपनी आखरी साँस तक प्रताप का साथ दिया था।

महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों को युद्ध के मैदान में उतारा था। मुगल सेना का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था। मान सिंह ने लगभग 5,000-10,000 सेना की कमान संभाली थी। 3 घण्टे से अधिक समय तक चले इस भयंकर युद्ध में महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी हाल में देखा।

प्रताप की सेना ने उन्हें युद्ध मैदान से निकालने में मदद की और वे एक ओर दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई थी। लेकिन इस युद्ध में महाराणा प्रताप को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उन्हें जंगलो में जीवन व्यापन करना पड़ा था। वे अपना राज-पाठ सब हर चुके थे। लेकिन फिर भी अकबर की दासता स्वीकार नहीं की।

जब महाराणा प्रताप शत्रु सेना से घिर चुके थे, तब झाला मानसिंह ने प्रताप का वेश धारण कर उन्हें युद्ध भूमि से बाहर निकाला और खुद वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने अपना अश्व देकर प्रताप को बचाया। लम्बे – चौड़े नाले को पार करने के बाद प्रताप के घोड़े चेतक की मृत्यु हो गई थी।

यह युद्ध एक दिन चला था, जिसमें 17,000 लोग मारे गए थे। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने हर संभव प्रयास किया था, लेकिन वह महाराणा को झुका नहीं सका था। इसी दौरान 24,000 सैनिकों के लिए 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद उन्हें “हिंदुशिरोमणी” माना गया।

महाराणा प्रताप द्वारा समर्पण विचार

हल्दी घाटी युद्ध के बाद प्रताप को बहुत नुकसान हुआ था। वह अपना राज्य हर चूका था और मुग़ल सेना से बचने के लिए जंगलो में रहने लगा था। यही से प्रताप ने अपनी लड़ाई मुगलो के विरुद्ध जारी रखी। जंगलो में रहकर प्रताप ने छापामार युद्ध नीति का प्रयोग किया। अपनी युद्ध कला के दम पर प्रताप ने मुग़ल सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।

महाराणा प्रताप ने मुग़ल सेना की नाक में दम कर रखा था। अकबर ने प्रताप को पकड़ने के लिए तीन विद्रोह किए और तीनो बार ही उसे हार मिली। प्रताप के ऊपर छाये संकट को देखकर भामाशाह ने वित्तीय सहायता प्रदान की। मुग़ल सेना के अत्याचार से बचने के लिए सभी निर्वासित जंगलों में कई वर्षों तक रहे थे।

वे जंगली जामुन, कंद-मूल, आदि के द्वारा अपना पेट भरते थे। एक राजा के लिए जंगलों में गुजारा करना, इससे बुरा समय ओर क्या हो सकता है। महाराणा प्रताप को जंगलों में रहते हुए घास की रोटी खानी पड़ी थी। एक बार बिल्ली घास की रोटी को भी छीन लेती है, जिससे प्रताप बहुत दुखी होते है।

हाथ से राज-पाठ तो चला गया, लेकिन किस्मत में घास की रोटी भी नहीं है। उसे भी बिल्ली छीन लेती है। इस प्रकार प्रताप टूट जाते है और अकबर को समर्पण करने का विचार करते है। उन्होंने अकबर के साथ संधि करने के लिए पत्र भेजा। अकबर यह समाचार पाकर बहुत खुश हुआ।

जब अकबर यह पत्र पृथ्वीराज राठौड़ को दिखाते है तो पृथ्वीराज राठौड़ को विश्वास नहीं होता है। तभी राठौड़ कहते है कि मुझे इस पत्र की सच्चाई जानने के लिए कुछ समय दीजिये। बादशाह अकबर ने खुशी खुशी में राठौड़ को कुछ समय दे दिया। पृथ्वीराज राठौड़ अकबर के दरबारी थे, जो कि महाराणा प्रताप के हितेषी थे।

पृथ्वीराज राठौड़ महाराणा को पत्र लिखते है कि – हे राणा प्रताप, तेरे खड़े रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से रौंद सके। हे हिंदूपति प्रताप, हिंदुओं की लाज रखो। अपनी शपथ निभाने के लिये हर तरह की विपत्ति और कष्ट सहन करो। हे प्रताप, मै अपनी मूँछ पर हाथ फेरू या अपनी देह को तलवार से काट डालू इन दो में से एक बात लिख दीजिए।

प्रताप यह पत्र पाकर आश्चर्यचकित रह जाते है। उन्हें अहसास होता है कि वे क्या करने जा रहे है। राठौड़ का पत्र देखकर प्रताप अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हो जाते है। महाराणा प्रताप ने पृथ्वीराज को पत्र लिखकर भेजा कि हे वीर आप प्रसन्न होकर मूछों पर हाथ फेरे। जब तक प्रताप जीवित है, मेरी तलवार को तुर्को के सिर पर ही समझिए।

महाराणा प्रताप और चेतक की कहानी – Maharana Pratap And Chetak Story in Hindi

महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध नीलवर्ण ईरानी मूल के घोड़े का नाम चेतक था। चेतक में संवेदनशीलता, वफ़ादारी और बहादुरी कूट कूट कर भारी हुई थी। चेतक घोड़ा गुजरात के काठियावाड़ी व्यापारी ईरानी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मारवाड आया। अटक परीक्षण में काम आ गया। त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया।

एक बार राणा उदय सिंह ने प्रताप को राजमहल में बुलाकर दो घोड़ो में से एक का चयन करने कहा। एक घोडा सफ़ेद था और दूसरा नीला। तभी प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने उदय सिंह से कहा उसे भी घोड़ा चाहिये। शक्ति सिंह शुरू से ही अपने भाई से घृणा करते थे। प्रताप को नील ईरानी घोड़ा बहुत पसंद था लेकिन वे सफ़ेद घोड़े की तरफ बढ़ते हैं और उसकी तारीफों के पूल बाँधते है।

तभी शक्ति सिंह यह देख तेजी से सफ़ेद घोड़े की तरफ जा कर उसकी सवारी कर लेते हैं। ऐसे में राणा उदय सिंह शक्ति सिंह को सफ़ेद घोड़ा दे देते हैं और महाराणा प्रताप को नीला घोड़ा मिल जाता है। जिसका नाम चेतक था। प्रताप अपने अश्व की देखरेख खुद करते थे। चेतक प्रताप को बहुत प्रिय था।

चेतक कोई आम अश्व नहीं था बल्कि ऐसा लगता था जैसे भगवान ने स्वयं प्रताप के लिए उसे बनाया हो। चेतक देशभक्त, बहादुर, वफादार, फुर्तीला, चतुर था। महाराणा प्रताप की वीरता की कहानियों में चेतक का नाम प्रथम स्थान पर आता है। प्रताप चेतक से अपने पुत्र की तरह प्रेम करते थे।

हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता और वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह से घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल होता है। अपने मालिक प्रताप की रक्षा के लिए चेतक लगभग 21 फिट चौड़े नाले को छलांग लगाकर पार कर लेता है।

लेकिन घायल होने के कारण कुछ देर बाद वह अपने प्राण त्याग देता है। आज भी राजसमंद के हल्दी घाटी गांव में चेतक की समाधि बनी हुई है। प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था। चेतक की स्वामिभक्ति पर बने कुछ लोकगीत मेवाड़ में आज भी गाये जाते हैं।

महाराणा प्रताप और धर्मपत्नी अजबदी पंवार की प्रेम कहानी – Maharana pratap and Ajbadi Love story 

अजबदी पंवार बिजोली के सामंत नामदे रामराव पंवार की बेटी थी। अजबदी स्वभाव से बहुत ही शांत व सुशील थी। वह बिजोली की राजकुमारी थी, जी कि चित्तोड़ के आधीन था। प्रताप की माँ जयवंताबाई और अजबदी की माँ अपने बच्चो के विवाह के पक्ष में थी। उस समय बाल-विवाह की प्रथा थी। इसलिए प्रताप व अजबदी का बाल-विवाह हुआ था।

अजबदी ने प्रताप के हर मुश्किल समय में साथ दिया था। उनमें विषम परिस्थितियों में उचित निर्णय लेने की क्षमता थी। अजबदी अपनी सास महारानी जयवंताबाई की ही छवि थी। उन्होंने युद्ध के दौरान भी प्रजा के बीच रहकर उनका मनोबल बढ़ाने का काम किया। अजबदी पंवार महाराणा प्रताप की प्रथम पत्नी थी।

इसके अलावा प्रताप की 11 पत्नियाँ ओर थी। राजनितिक सम्बन्ध सुधारने और बनाने के लिए प्रताप को इतनी शादी करनी पड़ी थी। महाराणा प्रताप के कुल 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ थी। जिनमें अमर सिंह सबसे बड़े पुत्र थे, जो कि अजबदी पंवार के पुत्र थे। महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद अमर सिंह ने ही  शासन संभाला था।

दिवेरछापली का युद्ध : Diweri – Chhapali Yudh

राजस्थान के इतिहास में सन्न 1582 में हुआ दिवेर-छापली का युद्ध महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है। इस युद्ध के माध्यम से महाराणा प्रताप को यश व कीर्ति प्राप्त हुई थी। प्रताप ने अपने खोये हुए राज्यों को वापस प्राप्त कर लिया था। इस दौरान प्रताप और मुग़ल सेना के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ। कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को “मेवाड़ का मैराथन” कहा था।

दिवेर के युद्ध मे मुगल सेना का नेतृत्व अकबर के चाचा सुल्तान खां ने किया था। जबकि मेवाड़ी सेना की एक टुकड़ी की कमान प्रताप ने संभाली और दूसरी टुकड़ी की कमान कुँवर अमर सिंह ने संभाली। मेवाड़ी सेना का जोश चरम सीमा पर था। यह युद्ध राणाकड़ा और राताखेत नामक स्थान पर लड़ा गया था।

दोनों घुटो के बीच भयंकर युद्ध चला था। अमरसिंह व राजपूत सेना ने मुगल सेना पर भीषण प्रहार किया और मुगल सेना को भारी क्षति पहुँचाई। अपने प्रमुख सेनापति सुल्तान खान और मुग़ल सेना की दुर्दशा देखकर मुग़ल सेना में भगदड़ मच गयी।  मेवाड़ी सेना ने अजमेर तक मुगल सेना को खदेड़ दिया था और मुगलो के सभी सैन्य ठिकानो को ध्वस्त कर दिया था।

इस युद्ध में लगभग 35 हजार मुग़ल सैनिको ने महाराणा प्रताप को आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई और सभी मुग़ल चौकियों से सुल्तान की सेना भाग गई। पुनः मेवाड़ के किले पर महाराणा प्रताप का ध्वज लहराया। इस युद्ध से प्रताप को अपना खोया हुआ साम्राज्य मिल गया था। साथ ही यह सब देख के अकबर के पसीने छूट गए।

महाराणा प्रताप का प्रकोप और विजयी अभियान

अकबर महाराणा प्रताप के नाम से ही डरता था। अकबर ने प्रताप को झुकाने व बंदी के लिए बहुत प्रयास किये थे, लेकिन सब विफल रहे थे। सन्न 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे। इसी दौरान प्रताप ने भी 1582 में दिवेर-छापली युद्ध में अपने खोये हुए साम्राज्य को हासिल कर लिया था।

इस प्रकार प्रताप एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे। अकबर मेवाड़ को भूलकर अन्य जगहों के विद्रोहों को दबाने में लग गया था। इससे मेवाड़ पर मुग़ल सेना का दबाव कम हो गया था। प्रताप ने इसी बात का फायदा उठाकर सन्न 1585ई. में अपने विजयी अभियानों की गति को तेज कर दिया था।

प्रताप की सेना ने एक के बाद एक मुगलिया ठिकानो पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और मेवाड़ी सेना ने उदयपुर सहित 36 महत्वपूर्ण स्थानों पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। प्रताप ने पुनः उतना ही भूभाग अपने अधिकार में कर लिया था, जितना पहले उनके नियंत्रण में था और पुनः मेवाड़ के सिंहासन पर विराजमान हुए।

12 वर्षो के लम्बे संघर्ष के बाद भी अकबर महाराणा प्रताप को बंदी नहीं बना सका। अकबर प्रताप से थक-हार कर बैठ गया। इस प्रकार एक लम्बे संघर्ष के बाद महाराणा प्रताप मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे। ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। अंततः सन्न 1585 ई. में  मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण समाप्त हो गया। इसके बाद प्रताप अपने राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए।

सन्न 1585 से 1597 तक अकबर ने मेवाड़ की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा। साथ ही बादशाह अकबर महाराणा प्रताप सिंह के डर से अपनी राजधानी आगरा से लाहौर लेकर चला गया और महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद पुनः आगरा ले आया था। अगर कोई गलती से भी अकबर के सामने प्रताप का नाम ले लेता था, तो उसके पसीने छूट जाते थे। अकबर के दिमाग में प्रताप का डर बैठ गया था।

महाराणा प्रताप की मृत्यु – Maharana pratap Death

एक दुर्घटना में महाराणा प्रताप घायल हो जाते है। जिस वजह से 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो जाती है।  57 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त होकर एक सच्चा राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि का रखवाला दुनिया में हमेशा के लिए अमर हो गया।

आज भी महाराणा प्रताप का जन्मोतस्व राजस्थान में मनाया जाता है और लोग उनकी समाधी पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। प्रताप के शौर्य से अकबर भी प्रभावित था। प्रताप की मृत्यु के बाद मेवाड़ के सिंहासन पर उनके बड़े पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी संभाली थी। बाद में संसाधनों के अभाव में अमर सिंह ने जहाँगीर के साथ राजनितिक समझौता कर लिया था।

महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया

अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था और इन दोनों की शत्रुता व्यक्तिगत नहीं थी, बल्कि अपने सिद्धान्तों और मूल्यों की लड़ाई थी। एक तरफ अकबर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, तो वही प्रताप अपनी मातृभूमि की रक्षा करना चाहता था। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ।

अकबर प्रताप की देशभक्ति का प्रशंसक था। वह उसके शौर्य व गुणों की चर्चा करता था, लेकिन प्रताप के प्रति मन में डर भी था। जब अकबर को प्रताप की मृत्यु का समाचार मिला, तब वह आश्चर्यचकित रह गया और आँखों से आंसू बहने लगे थे। इसके बाद अकबर अपनी राजधानी को लाहौर से अगरा में पुनः ले आया, जिसे वह प्रताप के डर से लाहौर ले गया था।

FAQ

Q :  महाराणा प्रताप का जन्म कब हुआ था ?
Ans :  9 मई 1540

Q :  महाराणा प्रताप किसके पुत्र थे ?
Ans :  राणा उदय सिंह

Q :  महाराणा प्रताप की माँ का नाम क्या था ?
Ans :  महारानी जयवंताबाई

Q :  महाराणा प्रताप की प्रथम पत्नी कौन थी ?
Ans :  महारानी अजबदी पंवार

Q :  महाराणा प्रताप ने कितनी शादियाँ की थी ?
Ans :  12 , प्रताप ने पहली शादी अजबदी पंवार से की थी। इसके अलावा उन्होंने 11 शादी ओर की थी। अर्थात महाराणा प्रताप के 12 पत्नियां थी।

Q :  महाराणा प्रताप के कितने पुत्र और पुत्रियां थी ?
Ans :  17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ

Q :  महाराणा प्रताप का उत्तराधिकारी कौन था ?
Ans :  अमर सिंह प्रथम

Q :  महाराणा प्रताप किस वंश से थे ?
Ans :  सिसोदिया वंश

Q :  महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ की राजगद्दी पर कौन विराजमान हुआ ?
Ans :  अमर सिंह

Q :  महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कब हुआ था ?
Ans :  महाराणा प्रताप का पहला राज्याभिषेक 28 फरवरी 1572 में गोगुन्दा में हुआ था। परम्परा अनुसार महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही जोधपुर के शासक राव चन्द्रसेन राठौड़ की उपस्थित में कुम्भलगढ़ में हुआ था।

Q :  हल्दी घाटी का युद्ध कब हुआ था ?
Ans :  18 जून 1576 ईस्वी में

Q :  हल्दी घाटी का युद्ध कौन जीता था ?
Ans :  महाराणा प्रताप सिंह ने ( Maharana Pratap singh )

Q :  दिवेर-छापली का युद्ध कब और किसके बीच लड़ा गया था ?
Ans :  सन्न 1582 में महाराणा प्रताप और मुग़ल सेना के मध्य

Q :  दिवेर-छापली के युद्ध में किसकी विजयी हुई थी ?
Ans :  दिवेर-छापली के युद्ध में प्रताप की विजयी हुई थी। प्रताप ने इस युद्ध के माध्यम से अपने खोये हुए साम्राज्यों पुनः खड़ा किया था।

Q :  किस युद्ध को “मेवाड़ का मैराथन” कहा जाता है ?
Ans :  दिवेर-छापली के युद्ध को

Q :  महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम क्या था ?
Ans :  चेतक

Q :  चेतक की मृत्यु कैसी हुई थी ?
Ans :  हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक ने अपने अदम्य साहस, स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता और वीरता का परिचय दिया था। वह युद्ध में बुरी तरह से घायल हो जाता है। लेकिन फिर भी वह अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देता है। घायल प्रताप को युद्ध से बाहर निकलने के लिए वह लगभग 21 फिट चौड़े नाले को छलांग लगाकर पार कर लेता है। इस तरह चेतक वीरगति को प्राप्त हो जाता है।

Q :  महाराणा प्रताप की मृत्यु कब हुई थी ?
Ans :  19 जनवरी 1597 में

Q :  महाराणा प्रताप की मृत्यु कहाँ हुई थी ?
Ans :  राजधानी चावण्ड में

Q :  कितने साल की उम्र में प्रताप की मृत्यु हुई थी ?
Ans :  57 वर्ष की आयु में

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