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राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी Ram Prasad Bismil Biography in Hindi

राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी

राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी-Ram Prasad Bismil Biography in Hindi : शहीद राम प्रसाद बिस्मिल भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने बेहद कम उम्र में देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आज हम इस लेख में आपको शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी (Ram Prasad Bismil ki jiwani), जन्म, परिवार, प्रारंभिक जीवन, उनके द्वारा की गई क्रांतिकारी गतिविधियों और उनकी शहादत के बारे में बताऊंगा।

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे। उन्होंने सन् 1916 में 19 वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी पथ पर कदम रखा था। 11 वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया।

वे उन पुस्तकों को बेचकर हथियार खरीदते थे और उन हथियारों का प्रयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये करते थे। राम प्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में 11 पुस्तकें प्रकाशित की, जिनमें से अधिकतर किताब सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयीं थी। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

Table of Contents

राम प्रसाद बिस्मिल का जीवन परिचय एक नजर में

नाम राम प्रसाद बिस्मिल
जन्म 11 जून 1897
जन्म स्थान उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर के खिरनीबाग मुहल्ले में
जाति ब्राह्मण
पिता का नाम मुरलीधर
माता का नाम मूलमती
दादा का नाम नारायण लाल
दादी का नाम विचित्रा देवी
चाचा का नाम कल्याणमल
भाई का नाम रमेश सिंह
बहन शास्त्री देवी, ब्रह्मादेवी, भगवती देवी
राष्ट्रीयता भारतीय
धर्म हिन्दू
राजनीतिक आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
शैक्षिक योग्यता आठवीं पास
मृत्यु 19 दिसंबर 1927
मृत्यु स्थान गोरखपुर जेल
समाधि स्थल जिला देवरिया, बरहज, उत्तर प्रदेश
आयु 30 वर्ष
शौक पुस्तकें पढ़ना, लिखना

शहीद राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म परिवार

शहीद राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का जन्म 11 June 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में हुआ था। राम प्रसाद के पिताजी का नाम मुरलीधर और माताजी का नाम मूलमती था वह अपनी माँ की दूसरी संतान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र जन्म के समय ही मर चुका था।  मुरलीधर के कुल 9 सन्तानें हुईं थी, जिनमें 5 बेटे व 4 बेटियाँ थी। कुछ समय बाद 2 बेटों और 2 बेटियों की मृत्यु हो गयी। उनके भाई का नाम रमेश सिंह और बहनें शास्त्री देवी, ब्रह्मादेवी, भगवती देवी थी।उनका जन्म ब्राह्मण जाति में हुआ था। इसीलिए उन्हें पंडित के नाम से भी बुलाया जाता था।

बालक राम प्रसाद का नामकरण

बालक राम प्रसाद की जन्म-कुण्डली देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की – यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा (यद्यपि सम्भावना बहुत कम है) तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी। माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था। ज्योतिषी ने बहुत सोच विचार करके तुला राशि के नामाक्षर “र” पर नाम रखने का सुझाव दिया। राम प्रसाद के माता-पिता राम के आराधक थे। इसीलिए उन्होंने बालक का नाम रामप्रसाद रखा।

उनकी माताजी हमेशा कहती थी कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। राम प्रसाद के जन्म से पूर्व ही उनकी माँ ने एक पुत्र को खो दिया था। उन्होंने जादू-टोने का सहारा लिया गया। उन्होंने एक खरगोश पकड़ कर लाये और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के 2-4 चक्कर लगाये और वही मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है।

शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की शिक्षा

राम प्रसाद का मन पढ़ाई में शुरू से ही नहीं लगता था। उनका मन खेलने में ज्यादा लगता था। इस वजह से उन्हें अपने पिता से मार खानी पड़ती थी। लेकिन राम की माँ प्यार से समझती थी कि बेटा ऐसा नहीं करते है। पढ़ाई नहीं करना बुरी बात है। इस प्यार भरी सीख से उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उसके पिताजी ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया लेकिन उसने  “उ” से उल्लू बोलना व लिखना भी नहीं सीखा। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया।

अपने पिता के कड़े रुख के कारण राम प्रसाद ने 8th तक मन लगाकर पढ़ाई की। लेकिन बाद में गलत संगत में पड़ने की वजह से वह मिडिल क्लास की परीक्षा में दो बार फ़ैल हो गए। इस वजह से उनका उर्दू की पढ़ाई से मन उठ गया। फिर उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने का मन बनाया। लेकिन उनके पिताजी अंग्रेजी पढ़ाना नहीं चाहते थे। बाद में माँ के कहने उन्हें अंग्रेजी पढ़ने बेजा गया। इसके बाद वह आर्य समाज से जुड़े।

इसी दौरान पड़ोस के एक विद्वान पुजारी ने राम प्रसाद को पूजा-पाठ का ज्ञान करवा दिया। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव राम प्रसाद के जीवन पर भी पढ़ने लगा। पुजारी के उपदेशों के कारण वह पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा था। उन्होंने पुजारी के साथ व्यायाम करना शुरू किया। इससे किशोरावस्था की सभी बुरी आदतें छूट गयीं। लेकिन सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी। उनकी यह लत अपने सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की संगती से छूट गयी। सभी बुरी आदतों के छूटने के बाद राम का मन पढ़ाई में लगने लगा और वह अंग्रेजी के पाँचवें स्थान में शामिल हो गए।

राम प्रसाद की बुरी आदत

14 वर्ष की आयु में राम प्रसाद को अपने पिता की सन्दूक से पैसे चुराने की आदत पड़ गयी। वह चुराए हुए पैसो से उपन्यास खरीदकर पढ़ता था। साथ ही उन्होंने सिगरेट पीना व भाँग खाना शुरू कर दिया। इस तरह राम प्रसाद उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने केआदी हो गए थे। पैसे चोरी करने का यह सिलसिला कुछ दिन तक चला। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

लेकिन एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण राम प्रसाद को चोरी करते हुए उनके पिताजी ने पकड़ लिया गया। जिससे उनकी खूब पिटाई हुई और उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली। लेकिन उन्होंने रुपये चुराने की आदत नहीं छोड़ी। बाद में कुछ समझ आने पर उन्होंने यह आदत छोड़ दी। इसके बाद उनमें अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। वे अपना ज्यादातर समय पूजा-पाठ में बिताने लगे। इसी बीच मुंशी इन्द्रजीत से राम प्रसाद का  सम्पर्क हुआ। मुंशी ने राम प्रसाद को आर्य समाज के बारे में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। इस पुस्तक के अध्ययन से राम प्रसाद के जीवन में बहुत बदलाव आया।

राम प्रसाद में देश-भक्ति की भावना जाग्रत होना

जब राम प्रसाद सरकारी स्कूल शाहजहाँपुर में 8th कक्षा के छात्र में थे, तब संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने राम प्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। सत्यार्थ प्रकाश का गहरा अध्ययन और स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा करने से उनके मन में देश-भक्ति की भावना जागृत हुई।

सन् 1916 में उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में पं॰ जगत नारायण मुल्ला के आदेश की धज्जियाँ उड़ाई और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली। इससे सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी तरफ गया। अधिवेशन के दौरान राम प्रसाद का परिचय केशव बलिराम हेडगेवार, सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। सोमदेव शर्मा ने सिद्ध गोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय कानपुर से एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसका शीर्षक रखा गया था – अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास।

सन् 1916 में इस पुस्तक को लखनऊ में प्रकाशित किया गया था। रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में 200-200 सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी। बाद में जब काकोरी काण्ड का अभियोग चला, तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

मैनपुरी षडयंत्र

सन्न 1915-16 में अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिये उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में एक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना की गई। इसका मुख्य केन्द्र मैनपुरी ही था। मुकुन्दी लाल, दम्मीलाल, करोरीलाल गुप्ता, सिद्ध गोपाल चतुर्वेदी, गोपीनाथ, प्रभाकर पाण्डे, चन्द्रधर जौहरी और शिव किशन आदि ने इटावा निवासी पण्डित गेंदालाल दीक्षित के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करने के लिए उनकी संस्था शिवाजी समिति से जुड़ गए।

पं॰ गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में राम प्रसाद ने मातृवेदी की स्थापना की। राम प्रसाद अब ‘बिस्मिल’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने दल के लिए धन जुटाने के लिए जून 1918 में दो तथा सितम्बर 1918 में एक डकैती भी डालीं। जिससे पुलिस ने इन युवकों जगह-जगह खोजना शुरू कर दिया।

26 से 31 December 1918 तक दिल्ली में लाल किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया, तो पुलिस ने छापा डाला। किन्तु बिस्मिल की सूझ बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं। बाद में  इस संस्था के छिप कर कार्य करने की सूचना अंग्रेज अधिकारियों को लग गयी और प्रमुख नेताओं को पकड़कर उनके विरुद्ध मैनपुरी में मुकदमा चलाया गया।

मैनपुरी षडयंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल हुए थे। इन सब के लीडर राम प्रसाद बिस्मिल थे। किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये और फरार हो गये। 1 November 1919 को मजिस्ट्रेट बी॰ एस॰ क्रिस ने मैनपुरी षडयंत्र का फैसला सुनाया। फरवरी 1920 में मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया। वही राम प्रसाद 2 वर्ष भूमिगत रहे।

बाद में इस घटना को ही अंग्रेजों ने मैनपुरी षडयंत्र कहा। इन क्रान्तिकारियों को अलग-अलग समय के लिये कारावास की सजा हुई। यदि इस संस्था में शामिल मैनपुरी के ही देशद्रोही गद्दार दलपतसिंह ने अंग्रेजी सरकार को खबर न की होती तो यह दल समय से पहले टूटने वाला नहीं था। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

भूमिगत होने के बाद राम प्रसाद का जीवन

मैनपुरी षड़यंत्र के बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर में शरण ली। यहाँ कई महीनो तक उन्होंने निर्जन जंगलों में गाँव के गूजरों की गाय भैंस चराईं। इसका वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खण्ड : स्वदेश प्रेम (उपशीर्षक – पलायनावस्था) में किया है। उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा।

यह उपन्यास मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित पुस्तक निहिलिस्ट-रहस्य का हिन्दी-अनुवाद है। अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक यौगिक साधन का हिन्दी-अनुवाद भी उन्होंने भूमिगत रहते हुए ही किया था। उन दिनों में यमुना किनारे की जमीन पुलिस से बचने के लिये सुरक्षित होती थी। जिसका फायदा राम प्रसाद ने भरपूर उठाया था।

राम प्रसाद की खास विशेषता यह थी कि वे किसी भी स्थान पर ज्यादा दिनों तक नहीं रुकते थे। रामपुर में रहने के बाद वह अपनी सगी बहन शांति देवी के गाँव कोसमा जिला मैनपुरी में भी रहे। राम प्रसाद के नए रूप को उनकी अपनी बहन भी नहीं पहचान पायी थी। कोसमा से चलकर बाह पहुँचे। कुछ दिन बाह में रहने के बाद पिनहट, आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत स्थित अपने दादा के गाँव बरबई (जिला मुरैना, मध्य प्रदेश) चले गये।

यहाँ उन्होंने किसान का बेस बनाकर कुछ दिनों तक हल भी चलाया। भूमिगत रहते हुए उन्होंने 1918 में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन का हिन्दी-अनुवाद किया। उनके सभी साथियों को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी। उन्होंने इस पुस्तक का नाम कैथेराइन रखा था। भूमिगत रहने के दौरान बिस्मिल ने अनेक साहित्य-सृजन किये। जो लोगो के द्वारा काफी पसंद किये गए थे।

2 वर्ष बाद पुनः आंदोलन की तैयारी

सितम्बर 1920 में वह कलकत्ता कांग्रेस में शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। कलकत्ता में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई। जब लाला ने उनकी लिखी हुई पुस्तकें देखीं तो वे उनसे काफी प्रभावित हुए। उन्होंने उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से कराया। जिनमें एक उमादत्त शर्मा भी थे, जिन्होंने सन् 1922 में राम प्रसाद बिस्मिल की एक पुस्तक कैथेराइन छापी थी।

सन् 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में राम प्रसाद बिस्मिल ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और गाँधीजी से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। इस कारण राम प्रसाद युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये थे। पुरे देश में असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम् भूमिका थी।

लेकिन जब 1922 में चौरीचौरा काण्ड हुआ, तो गाँधीजी ने बिना परामर्श किये असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया। जिससे 1922 में गया कांग्रेस में बिस्मिल व उनके साथियों ने गाँधीजी का ऐसा विरोध किया कि कांग्रेस में दो विचारधारायें बन गयीं- एक उदारवादी और दूसरी विद्रोही। गाँधीजी हमेशा विद्रोही विचारधारा के युवाओं का विरोध करते थे।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का गठन

जनवरी 1923 में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों ने अनौपचारिक पार्टी के रूप में रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। सितम्बर 1923 में दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में भाग लेंगे। +

सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल राम प्रसाद के सम्पर्क में स्वामी सोमदेव के समय से ही थे। हरदयाल उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने की रणनीति बना रहे थे। हरदयाल ने पत्र लिखकर राम प्रसाद बिस्मिल को शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने को कहा। हरदयाल की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद चले गए और शचींद्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया।

इस नवगठित पार्टी का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन रखा गया। इस पार्टी के नियम एक पर्चे पर छापकर सदस्यों को भेजा गया। 3 October 1924 को इस पार्टी की एक कार्यकारिणी-बैठक कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। इस बैठक में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गये। पार्टी के लिए धन एकत्र करने लिए पहली डकैती 25 December 1924 को बमरौली में डाली गयी जिसका कुशल नेतृत्व बिस्मिल ने किया था।

काकोरी-काण्ड

दि रिवोल्यूशनरी नाम से प्रकाशित 4 पृष्ठीय घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में यह घोषणापत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके लौटते समय एच॰ आर॰ ए॰ के नियम की ढेर सारी प्रतियों के साथ योगेशचन्द्र चटर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया।

दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश व बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व आ गया। इसके बाद पार्टी के लिए धन जुटाने के लिए उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं, लेकिन कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका। इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल बहुत आहत हुए। जिससे उन्होंने केवल सरकारी खजाना लूटने का ही निर्णय लिया।

7 अगस्त 1955 को शाहजहाँपुर में एक इमर्जेन्सी मीटिंग में सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई गयी। 9 अगस्त 1955 को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे। इन माउजरों की मारक क्षमता भी साधारण पिस्तौलों से अधिक थी।

लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर ट्रैन को रोक दिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। इस बॉक्स को खोलने के लिए बहुत प्रयास किया गया। लेकिन यह नहीं खुला। अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे माउजर से निकली गोली अहमद अली को लग गयी और वह वही पर मर गया।

जल्दबाजी में चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गया। अगले दिन अखबारों में यह खबर पूरे देश में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और CID इंस्पेक्टर मिस्टर R.A. हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप गया। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

राम प्रसाद बिस्मिल की गिरफ्तारी

C.I.D ने अपनी गम्भीर छानबीन में पता लगाया कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों की एक सोची समझी योजना थी। पुलिस ने काकोरी कांड में शामिल नवयुवकों को पकड़ने के लिए इनाम की घोषणा कर दी। पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चला कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। पुलिस ने शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछताछ की।

पूछताछ में पता चला कि यह  चादर बनारसी लाल की है। पुलिस ने बनारसी लाल से सारा भेद ले लिया। पुलिस ने बनारसी लाल द्वारा दी गयी जानकारी से 26 सितम्बर 1925 को रात में बिस्मिल के साथ पुरे हिन्दुस्तान से 40 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी काण्ड में केवल 10 लोग ही शामिल हुए थे।

पुलिस ने इन सभी लोगो पर अभियोग चलाया और उन्हें 5 वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार व्यक्तियों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से 16 लोगो को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया।

मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे। ताकि सेशन कोर्ट में अपील भी की जाये तो कोई भी क्रांतिकारी बिना सजा न छूटे। जबकि बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर अपनी तरफ कर लिया था। बिस्मिल की गोपनीय जानकारी के बारे में बनारसी लाल ने ही गाँधीजी के कण भरे थे।

शहीद राम प्रसाद की फाँसी की सजा

6 अप्रैल 1927 को विशेष सेशन जज ए. हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी को सजा दी। उन्होंने सभी क्रान्तिकारीयो पर आरोप लगाया कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं थी, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। इनमें से कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं था।

लेकिन किसी ने भी माफ़ी नहीं मांगी है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों में भाग नहीं लेने का वचन दिया है। अतः किसी को भी माफ़ नहीं किया जा सकता है। फिर भी यदि कोई लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उसकी अपील पर सेशन कोर्ट विचार कर सकती है। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

सजा माफी की अपील

काकोरी कांड केस में 4 लोगो को फाँसी की सजा दी गयी। फाँसी के दंड की स्वीकृति अवध के चीफ कोर्ट से ली गयी थी। 6 अप्रैल 1927 को सेशन जज ने अपना अन्तिम फैसला सुनाया और 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई। इस अपील के बाद कुछ सजायें कम हुई और कुछ बढ़ा दी गयी।

राम प्रसाद बिस्मिल ने अपील करने से पहले संयुक्त प्रान्त के गर्वनर को सजा माफी के लिए एक पत्र भेजा था। इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि वह अब भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी दल से कोई संबंध नहीं रखेंगे। इस पत्र का जिक्र उन्होंने अपनी अन्तिम दया याचिका में किया था, जिसकी एक प्रतिलिपि चीफ कोर्ट को भेजी गई थी। लेकिन चीफ कोर्ट में उनकी याचिका ख़ारिज कर दी गई।

चीफ कोर्ट में बहस के दौरान उन्होंने स्वयं की लिखी हुई 76 पृष्ठ की बहस पेश की। उसे पढ़ कर जजों ने यह संदेह व्यक्त किया कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी जानकर से लिखवायी है। जजों को संदेह हो गया था कि यदि बिस्मिल को केस की पैरवी करने की अनुमति दे दी गई तो वह कोर्ट के सामने अपने पेश किये गये तथ्यों के आधार पर सजा माफ कराने में सफल हो जायेगा। इस वजह से बिस्मिल की सभी अपील खारिज कर दी गई।

राम प्रसाद बिस्मिल की फाँसी

16 दिसंबर 1927 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का अंतिम अध्याय पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसंबर 1927 को उन्होंने अपने माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसंबर 1927 को प्रात:काल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी।

बिस्मिल की शहादत की खबर सुनकर बहुत बड़ी संख्या में लोग जेल के फाटक पर एकत्र हो गए। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रखा गया और फाँसी-घर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को लगभग डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का अन्तिम संस्कार कर दिया।

बिस्मिल के अस्थि-कलश की स्थापना

बिस्मिल की अन्त्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में उनकी अस्थियों को एकत्र कर एक चबूतरे जैसी स्मृति-स्थल बनवाया। (Ram Prasad Bismil ki jiwani)

राम प्रसाद बिस्मिल पर अन्य व्यक्तियों के विचार

1. भगतसिंह के विचार

जनवरी 1928 में भगत सिंह ने काकोरी कांड के शहीदों पर एक लेख लिखा था। भगत सिंह बिस्मिल के बारे में लिखते हैं कि-

“श्री राम प्रसाद बिस्मिल बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी ओर जगह या किसी ओर देश या किसी ओर समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड़यंत्र का नेता माना गया। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी। जिससे जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर किसी बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।”

2. रज्जू भैया के विचार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 4th संघ चालक रज्जू भैया ने एक पुस्तक में बिस्मिल के बारे में लिखा है कि –

“मेरे पिताजी 1921-22 के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके पास ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। राम प्रसाद प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि बिस्मिल के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बड़ा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बड़ा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे बिस्मिल के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।”

3. रामविलास शर्मा के विचार

हिन्दी के प्रखर विचारक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में बिस्मिल के बारे में लिखा कि –

“ऐसा बहुत कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। राम प्रसाद बिस्मिल 19 दिसंबर 1927 को शहीद हुए। उससे पहले मई 1927 में भगत सिंह ने किरती में ‘काकोरी के वीरों से परिचय’ लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा – ‘ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।

FAQ

Q : राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म कब हुआ था ?
Ans : 11 जून 1897

Q : राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म कहाँ हुआ था ?
Ans : उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में

Q : राम प्रसाद बिस्मिल का नारा क्या था?
Ans : सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

Q : राम प्रसाद बिस्मिल को फाँसी कब हुई थी ?
Ans : 19 दिसंबर 1927

Q : राम प्रसाद बिस्मिल के गुरु का नाम क्या है?
Ans : स्वामी सोमदेव

Q : काकोरी कांड में कितने लोगों को फांसी दी गई?
Ans : 4 लोगो को

Q : काकोरी के शहीद नामक पुस्तक के लेखक कौन है?
Ans : शहीद राम प्रसाद बिस्मिल

Q : राम प्रसाद बिस्मिल के माता-पिता का नाम क्या है?
Ans : राम प्रसाद बिस्मिल के पिताजी का नाम मुरलीधर और माताजी का नाम फूलमती देवी था।

Q : राम प्रसाद बिस्मिल कौन है?
Ans : राम प्रसाद बिस्मिल गुलाम भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी व क्रांतिकारी थे। वे मैनपुरी षड़यंत्र व काकोरी कांड में लीडर थे।

Q : राम प्रसाद के जीवन में परिवर्तन कब आया?
Ans : मुंशी इन्द्रजीत ने राम प्रसाद को आर्य समाज के बारे में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। स्वामी सोमदेव की मुलाकात से व पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पड़ने के बाद उनके जीवन में पूर्ण परिवर्तन देखा गया।

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