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स्वामी विवेकानंद की जीवनी biography of swami vivekanand in hindi

स्वामी विवेकानंद की जीवनी

आप स्वामी विवेकानंद के बारे में जानते ही होंगे। क्या अपने कभी स्वामी विवेकानंद की जीवनी पढ़ी। स्वामी जी ऐसे आदर्श अवतार थे जिन्होंने अपने आध्यात्मिक ज्ञान और सूझ-भुज से सम्पूर्ण संसार में भारतवर्ष का प्रचम लहराया है। जब उन्हें शिकागो धर्म सम्मलेन में अपने धर्म व संस्कृति का विवरण देने के लिए 2 मिनट का समय दिया गया, तब उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि व आध्यात्मिक ज्ञान का प्रयोग करके अपने भाषण का सम्बोधन इस तरह किया, कि सभा में उपस्थित हर व्यक्ति को उन्हें सुनना पड़ा। स्वामी जी ने प्रमुख रूप से अपने भाषण की शुरुआत “मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों” के साथ की। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। स्वामी जी अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे। उन्होंने अपने गुरु से सीखा कि सभी जीवो मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व होता है। इसलिए मानव जाति का अर्थ है , जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दो सहायता करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।

रामकृष्ण की मृत्यु के बाद स्वामी जी ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। अतः स्वामी विवेकानंद की जीवनी मे, मैं आपको बहुत कुछ बताने वाला हूँ। मैंने स्वामी विवेकानंद की जीवनी नोवल्स का अध्ययन किया है। मैं नोवल्स में से ही आपको स्वामी जी के बारे में बता रहा हूँ। इसके आपको ”स्वामी विवेकानंद की जीवनी- biography of swami vivekanand in hindi ” को ध्यान से पड़ना होगा। आइये विस्तार से जानते है ”स्वामी विवेकानंद की जीवनी”  के बारे में

Table of Contents

स्वामी विवेकानन्द का प्रारंभिक जीवन (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

स्वामी विवेकानंद का जन्म तथा बचपन

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थपरिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। स्वामी जी के पिताजी का नाम विश्वनाथ दत्त था जो कोलकाता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। स्वामी जी के दादा जी का नाम दुर्गाचरण दत्त था जो संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान थे। उन्होंने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और एक साधु बन गए।  स्वामी जी की पूज्य माताजी का नाम भुवनेश्वरी देवी था। उनकी माता जी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की। नरेंद्र का परिवार शिव भक्त था। नरेंद्र भी अपने माता पिता के साथ पूजा पाठ किया करते थे।

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि तथा नटखट हुआ करता था। वे अपने दोस्तों के साथ बहुत शरारत करते थे। वे मौका मिलने पर अपने गुरुजनों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमानुसार रोजना पूजा-अर्चना होती थी। धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। इस वजह से कथावाचक उनके घर आते रहते थे। उनके घर में नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। नरेंद्र भी इन कार्यक्रमों में रूचि रखते थे। और इन्हे बड़े ध्यान से सुनते थे। अतः परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव के कारण बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं आध्यात्मिक ज्ञान का बोध होता गया। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की जिज्ञासा जागने लगी थी। ईश्वर को जानने की उत्सुकता में कभी-कभी नरेंद्र ऐसे सवाल पूछ लिया करते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक चक्कर में पड़ जाते थे। और उनके सवाल का जवाब देने में असमर्थ रहते थे।

स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

नरेन्द्र नाथ का सन्न 1871 में ईश्वर चंद विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संसथान में प्रवेश दिलाया गया। यहाँ से इनकी स्कूल की शिक्षा शुरू हुई थी।  1877 में उनका परिवार किसी कारणवश अचानक रायपुर चला गया। जिस वजह से उनकी पढ़ाई कुछ समय के लिए बाधित हो गयी थी। सन्न 1879 में कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी करने के बाद, स्वामी जी एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में फर्स्ट डिवीजन अंक प्राप्त किये। स्वामी जी  विभिन्न विषयो – दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञानं, कला और साहित्य के उत्सुक पाठक थे।

स्वामी जी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अलावा अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि  रखते थे। इन सब का तन माँ से अध्ययन करते। उन्हेंनो भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षण हासिल किया हुआ था। वे इस प्रशिक्षण में निपुण भी थे। वे  नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में सम्मिलित हुआ करते थे। स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटूशन से किया। सन्न 1881 में उन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। साथ में उन्होनें सन्न 1884 में कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री पूर्ण की थी। फिर उन्होनें वकालत की पढ़ाई भी की।

सन्न 1884 का समय स्वामी विवेकानंद के लिए बेहद दुखद पूर्ण था। क्योंकि इस समय उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी थी। पिता की मृत्यु के बाद उनके ऊपर अपने 9 भाईयो-बहनों को सम्भालने की जिम्मेदारी आ गई थी। लेकिन वे इस परिस्थिति से घबराये नहीं बल्कि अडिग रूप से कठिनाईयों का सामना किया। और इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।

स्वामी विवेकानन्द ने डेविड ह्यूम ( David Hume ), इमैनुएल कांट (Immanuel Kant ), जोहान गोटलिब फिच (Johann Gottlieb Fichte )  बारूक स्पिनोज़ा (Baruch Spinoza ), जोर्ज डब्लू एच हेजेल (Georg W.F. Hegel ),आर्थर स्कूपइन्हार (Arthur Schopenhauer),ऑगस्ट कॉम्टे ( Auguste Comte ), जॉन स्टुअर्ट मिल (John Stuart Mill) और चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के कामों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन का बंगाली में अनुवाद किया। स्वामी जी हर्बट स्पेंसर की किताब से काफी प्रभावित थे। जब वे पश्चिमी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तब उन्होंने संस्कृत ग्रंथो और बंगाली साहित्यों को भी पढ़ा। विलियम हेस्टी जो की ”महासभा संस्था के प्रिंसिपल थे ” ने लिखा, “नरेन्द्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन इनके जैसा प्रतिभाशाली एक भी बालक कहीं नहीं देखा। यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं है। स्वामी जी को श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति वाला  व्यक्ति) भी कहा जाता है।

स्वामी विवेकानंद की जीवनी- biography of swami vivekanand in hindi

रामकृष्ण परमहंस के साथ विवेकानंद जी की निष्ठा

स्वामी विवेकानंद बचपन से ही बड़ी जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। वे घर में कथावाचक व अपने माता पिता से ऐसे ऐसे सवाल करते थे जिनका उनके पास कोई जवाब नहीं होता था। एक बार उन्होनें महर्षि देवेन्द्र नाथ से सवाल पूछा था कि  ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ उनके इस सवाल को सुनकर महर्षि आश्चर्य में पड़ गए थे। उन्होनें इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी। जिसके बाद स्वामी जी उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्हें अपना गुरु बना लिया। उनके बताए गए मार्ग पर आगे बढ़ते चले गए। इस तरह उनके मन में अपने गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और श्रद्धा बढ़ती चली गई। गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता मजबूत होता चला गया।

स्वामी विवेकानंद की जीवनी

 

एक बार की बात है, जब सन्न 1885 में रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीड़ित हो गए थे तब किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखा दी थी। जिसे देख के स्वामी को बहुत बुरा लगा। ऐसे स्थिति में स्वामी जी ने अपने गुरु की काफी सेवा भी की। गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर सम्पूर्ण विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा थी, जिसका परिणाम सम्पूर्ण संसार ने देखा था। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और परिवार की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में लगातार लीन रहे।

रामकृष्ण मठ की स्थापना

16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया। स्वामी जी ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की। परन्तु बाद में इसका नाम रामकृष्ण मठ कर दिया गया। रामकृष्ण मठ की स्थापना के बाद नरेन्द्र ने ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया और वे नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द हो गए।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

1 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी,जिसका मुख्य उद्देश्य नए भारत के निर्माण के लिए अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ-सफाई के क्षेत्र में कदम बढ़ाना था। साहित्य, दर्शन और इतिहास के विद्धान स्वामी विवेकानंद ने अपनी प्रतिभा का सभी को दीवाना कर दिया था और अब वे नौजवानों के लिए आदर्श बन गए थे। सन्न 1898 में स्वामी जी ने बेलूर मठ की स्थापना की जिसने भारतीय जीवन दर्शन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। इसके अलावा स्वामी जी ने अन्य दो मठों की ओर स्थापना की।

 स्वामी विवेकानन्द  का भारत भ्रमण (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

स्वामी विवेकानन्द ने केवल 25 साल की उम्र में ही गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था। इसके बाद वे सम्पूर्ण भारत वर्ष की पैदल यात्रा के लिए निकल पड़े। वे अपनी पैदल यात्रा के दौरान अयोध्या, वाराणसी, आगरा, वृन्दावन, अलवर समेत कई जगहों पर पहुंचे। और वहाँ की परिस्थितियों का अवलोकन किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई भेदभाव व कुरूतियो का पता चला जिन्हें मिटाने के लिए उन्होंने भरभूर प्रयास किया। इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल में भी रुके और गरीब लोगों की झोपड़ी में भी रुके।

23 दिसम्बर 1892 को विवेकानंद कन्याकुमारी जा पहुंच। वहाँ पर वे 3 दिन तक एक गंभीर समाधि में रहे। वहाँ से वे वापस लौटकर राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले। स्वामी जी ने उनके सामने अपनी भारत यात्रा के दौरान हुए कष्ट को  प्रकट की किया। स्वामी जी ने कहा कि उन्होनें इस यात्रा के दौरान देश की गरीबी और लोगों के दुखों को जाना है। स्वामी जी ये सब देखकर बहुत दुखी हुए। इसके बाद उन्होनें इन सब से मुक्ति के लिए अमेरिका जाने का फैसला लिया।

स्वामी विवेकानन्द की अमेरिका यात्रा और शिकागो भाषण

सन्न 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो पहुंचे। जहाँ उन्होनें विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। यूरोप -अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे और घृणा किया करते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। इस दौरान एक जगह पर कई धर्मगुरुओ ने अपनी किताब रखी,वहीं भारत के धर्म के वर्णन के लिए श्री मद भगवत गीता रखी गई थी जिसका खूब मजाक उड़ाया गया था। लेकिन जब स्वामी विवेकानंद ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान से भरे भाषण की शुरुआत की, तब सम्पूर्ण सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उन्हें अपने धर्म का विवरण करने के लिए दो मिनट का समय दिया गया था। लेकिन उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इस तरह की जिससे वहाँ उपस्थित सभी  लोग मंत्रमुग्द हो गए थे। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत कुछ इस तरह की थी

मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों!

आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह-प्रेम के साथ हम लोगों का स्वागत किया है,उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्षोउल्लास से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन सभ्यता की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। सभी धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ। सभी सम्प्रदायों एवं मतों के हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन सभी वक्ताओं का भी धन्यवाद करता हूँ , जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विभिन्न देशों में प्रचारित कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का महसूस करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत की शिक्षा दी हैं।

हम लोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि सभी धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं और सभी धर्मों का सम्मान करते है। मुझे ऐसे देश का नागरिक होने का गर्व है जिसने इस पृथ्वी के सभी धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से मिटटी में मिला दिया गया था। भाईयो और बहनों मैं आप लोगों को एक स्रोत की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में आपमें ( god ) ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा जो अभी तक की आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है।

यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

धर्मसभा में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित रह गये। देखते ही देखते अमरीका में स्वामी का बहुत स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्व ज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। स्वामी जी की भाषण शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। “अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” यह स्वामी विवेकानन्द का कठोर विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका सानिध्य ग्रहण किया। वे सदैव अपने आपको को ‘गरीबों का सेवक’ कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदैव प्रयास किया।

उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जी अपने विवेक व आध्यात्मिक ज्ञान से ऐसे ऐसे कारनामें कर गए जिससे वे शताब्दियों तक आने वाली अनेक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। 30 वर्ष की आयु में ही स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक स्तर पर पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” रोमां रोलां ने स्वामी जी के बारे में कहा था-“उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।

स्वामी विवेकानंद की जीवनी

स्वामी जी केवल सन्त ही नहीं अपितु एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से भारत वापिस लौटने पर स्वामी जी ने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-“नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।” और जनता ने स्वामी की पुकार का उत्तर दिया। महात्मा गान्धी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला था, वह स्वामी विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था।

इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। इस पावन धरती पर बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ है, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा केवल और केवल यहीं आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। स्वामी जी के कथन है -“‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।” you are reading स्वामी विवेकानंद की जीवनी।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षोँ में विवेकानन्द सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के माध्यम से भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन विचारो के लिये अभी तैयार नहीं हैं। इसके बाद ही स्वामी  विवेकानन्द ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन किया और भारत और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये,जो भारत के गांव,ढाणी,नगर में फैलकर देशवासियों की सेवा में लीन हो जायें।

परन्तु स्वामी जी का यह सपना पूरा नहीं हो सका। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे।उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा का केन्द्र में मानकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के 33 करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।

स्वामी जी का इस तरह विरोधी बयान देने  से 21 वीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा हो गया था। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज भी कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी तंत्र भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। यदि ऐसा कोई करने की जरूरत करता है तो हिन्दुओ की आस्था ही उसे उखाड देगी। स्वामी विवेकानंद की जीवनी की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की सुविधा  के लिए ईमानदार प्रयास किया हो तो वह भारत ही है।

स्वामी जी ने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों का मजाक भी बनाया। आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे भी ज्यादा है जिसे हम पश्चिमी देशो को दे सकते हैं और पश्चिमी देशो को उसकी सख्त जरूरत भी है। भारत में इतनी धन -सम्पदा है कि हम दूसरे देशो भी दे सकते है। यह स्वामी जी  का अपने देश की धरोहर के लिये बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी और 20 वीं सदी के इतिहास में उसी पर मुहर लगायी।

स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

उस समय स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा स्थापित व अंग्रेजो की प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ थे। क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य केवल सरकारी नौकर तथा बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। स्वामी जी ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को ‘निषेधात्मक शिक्षा’ की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ?

अतः स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्षधर नहीं थे। स्वामी जी व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। स्वामी जी कहते है कि व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है। इसलिए शिक्षा में ऐसे तत्वों का होना आवश्यक है जो मानव के सम्पूर्ण विकास के  लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।

स्वामी जी शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को लौकिक तथा पारलौकिक दोनों तरह के जीवन के लिए  तैयार करना चाहते हैं। लौकिक दृष्टि की शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी जी ने कहा है कि ‘हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।’ पारलौकिक दृष्टि की शिक्षा के लिए उन्होंने कहा है कि ‘शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।’

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा के सन्दर्भ में विचार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया पर केन्द्रित हैं, न कि केवल किताबी ज्ञान पर। स्वामी जी  एक पत्र में लिखते हैं–”शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक-विद्या है? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम व लगन के द्वारा इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाया जाता है और जो फलदायक होता है। वह शिक्षा कहलाती है।” शिक्षा का उपयोग किस प्रकार चरित्र-निर्माण के लिए किया जाना चाहिए।

इस सन्दर्भ में स्वामी जी कहते हैं- “शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी बहुत-सी बातें इस तरह ठूँस दी जायँ, जो आपस में लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग़ उन्हें जीवन भर हज़म न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तविकता में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हज़म कर जीवन और चरित्र गठित कर सकते हो,तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।”

स्वामी जी देश की उन्नति में  शिक्षा महत्वपूर्ण मानते है। फिर चाहे वो आध्यात्मिक तरीके से हो या फिर आर्थिक तरीके से हो। भारत और पश्चिमी  देशो के बीच के अन्तर को स्वामी जी वर्णित करते हुए कहते हैं कि “केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! स्वामी जी ने यूरोप के बहुत सारे महानगरों व शहरो का भ्रमण किया। उन्होंने वहाँ के गरीब लोगो की शिक्षा,अमन शांति को देखकर हमारे देश के गरीब लोगो की बातो को याद करते है।  और उनकी आँखे नाम हो जाती है। उन्होंने अपने आप से सवाल किया, ”यह अंतर क्यों?” जवाब पाया – शिक्षा!”  स्वामी विवेकानंद का मत था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए और चरित्र की उन्नति होनी चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

  1. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
  2. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
  3. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
  4. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
  5. स्वामी विवेकानंद के अनुसार व्यक्ति को अपनी रूचि को महत्व देना चाहिए|
  6. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  7. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।
  8. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
  9. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
  10. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
  11. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ति दे।
  12. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।

स्वामी विवेकानद की मृत्यु

सन्न 1899 में अमेरिका से लौटते समय स्वामी विवेकानंद जी बीमार हो गए। वे बीमारियों से ग्रस्त हो गए थे और उनकी यह बिमारी लगभग 3 वर्षों तक रही। उस समय तक स्वामी विवेकानंद की ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में चर्चित थी। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और उन्होंने अपने शिष्यों व अनुयायियों से कहा-“एक और विवेकानन्द चाहिये,यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।” जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला। उन्होंने रोजाना की तरह प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का 16 वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। स्वामी जी के शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और पुरे विश्व में विवेकानन्द जी तथा उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की

स्वामी विवेकानन्द की प्रचलित कहानियाँ (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

स्वामी जी के जीवन से जुडी ऐसी बहुत सी कहानियाँ है,जो हमारा मार्गदर्शन करती है पर हम आपको यहाँ दो कहानियाँ बता रहे है

1. स्वामी जी का लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना

एक बार स्वामी विवेकानन्द अपने आश्रम में सो रहे थे। तभी एक व्यक्ति उनके पास आया। वह बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज मैं अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूँ। मैं हर काम खूब मन लगाकर करता हूँ फिर भी आज तक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति कि बाते सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा ठीक है। आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ी देर तक घुमाकर लाये तब तक मैं आपकी समस्या का समाधान ढूँढ़ता हूँ। इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को घुमाने के लिए चल गया। फिर कुछ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति वापस आया। तो स्वामी विवेकानन्द ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कुत्ता इतना हाँफ क्यों रहा है। जबकि तुम थोड़े से भी थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ ?

इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर उधर पुरे रास्ते में भागता रहा और कुछ भी देखता तो उधर ही चला जाता था। जिसके कारण यह इतना थक गया है। इस पर स्वामी विवेकानन्द ने मुस्कुराते हुए कहा बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है। तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है। लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते रहते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नही हो पाए।  यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था कि यदि सफल होना है तो हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द की इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम जो भी करना चाहते है, जो भी बनना चाहते है। हम उस पर ध्यान नहीं देते है और हम दूसरों को देखकर वही करने लगते है जो वह कर रहा होता है। जिसकी वजह से हम अपनी सफलता के नजदीक होते हुए भी दूर भटक जाते है। इसीलिए अगर हमे जीवन में सफल होना है, तो हमेशा हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

2. स्वामी जी का नारी के प्रति सम्मान

स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि देश-विदेश में फैली हुई थी। एक बार कि बात है जब स्वामी जी किसी समारोह के लिए विदेश गए थे। उनके समारोह में बहुत से विदेशी लोग आये हुए थे। उनके द्वारा दिए गए भाषण से एक विदेशी महिला बहुत ही प्रभावित हुईं और वह विवेकानन्द के पास आयी और स्वामी विवेकानन्द से बोली कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ ताकि आपके जैसा ही मुझे गौरवशाली पुत्र की प्राप्ति हो। इस पर स्वामी विवेकानन्द बोले कि क्या आप जानती है कि ”मै एक सन्यासी हूँ ” भला मै कैसे शादी कर सकता हूँ। अगर आप चाहो तो मुझे आप अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा सन्यास भी नही टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि आप धन्य है। आप ईश्वर के समान है। जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते है।

स्वामी विवेकानन्द की इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करे

स्वामी विवेकानन्द के अनमोल वचन (स्वामी विवेकानंद की जीवनी)

  1. उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।
  2. जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
  3. एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ।
  4. बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।
  5. विवेकानंद ने कहा था – चिंतन करो, चिंता नहीं तथा नए विचारों को जन्म दो।
  6. खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।
  7. पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
  8. सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।
  9. शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।
  10. एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
  11. हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।
  12. जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।
  13. विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।
  14. एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।

स्वामी विवेकानंद की जीवनी के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ 

12 जनवरी 1863 – कोलकाता  में जन्म

1879 -प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता में प्रवेश

1880 – जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश

नवम्बर 1881 -रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट

1882-86 – रामकृष्ण परमहंस से सम्बद्ध

1884 – स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास

1885 – रामकृष्ण परमहंस की अन्तिम बीमारी

16 अगस्त 1886 – रामकृष्ण परमहंस का निधन

1886 – वराहनगर मठ की स्थापना

जनवरी 1887 – वड़ानगर मठ में औपचारिक सन्यास

1890-93 – परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण

25 दिसम्बर 1892 – कन्याकुमारी में

13 फ़रवरी 1893 – प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकन्दराबाद में

31 मई 1893 – मुम्बई से अमरीका रवाना

25 जुलाई 1893 – वैंकूवर, कनाडा पहुँचे

30 जुलाई 1893 – शिकागो आगमन

अगस्त 1893 – हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो॰ जॉन राइट से भेंट

11 सितम्बर 1893 – विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान

27 सितम्बर 1893 – विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम व्याख्यान

16 मई 1894 – हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण

नवंबर 1894 – न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना

जनवरी 1895 – न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरम्भ

अगस्त 1895 – पेरिस में

अक्टूबर 1895 – लन्दन में व्याख्यान

6 दिसम्बर 1895 – वापस न्यूयॉर्क

22-25 मार्च 1896 – फिर लन्दन

मईजुलाई 1896 – हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान

15 अप्रैल 1896 – वापस लन्दन

मईजुलाई 1896 – लंदन में धार्मिक कक्षाएँ

28 मई 1896 – ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट

30 दिसम्बर 1896 – नेपाल से भारत की ओर रवाना

15 जनवरी 1897 – कोलम्बो, श्रीलंका आगमन

जनवरी, 1897 – रामनाथपुरम् (रामेश्वरम) में जोरदार स्वागत एवं भाषण

6-15 फ़रवरी 1897 – मद्रास में

19 फ़रवरी 1897 – कलकत्ता आगमन

1 मई 1897 – रामकृष्ण मिशन की स्थापना

मईदिसम्बर 1897 – उत्तर भारत की यात्रा

जनवरी 1898 – कलकत्ता वापसी

19 मार्च 1899 – मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना

20 जून 1899 – पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा

31 जुलाई 1899 – न्यूयॉर्क आगमन

22 फ़रवरी 1900 – सैन फ्रांसिस्को में वेदान्त समिति की स्थापना

जून 1900 – न्यूयॉर्क में अन्तिम कक्षा

26 जुलाई 1900 – योरोप रवाना

24 अक्टूबर 1900 – विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा

26 नवम्बर 1900 – भारत रवाना

9 दिसम्बर 1900 – बेलूर मठ आगमन

10 जनवरी 1901 – मायावती की यात्रा

मार्चमई 1901 – पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा

जनवरीफरवरी 1902 – बोध गया और वाराणसी की यात्रा

मार्च 1902 – बेलूर मठ में वापसी

4 जुलाई 1902 – महासमाधि

निष्कर्ष 

यह स्वामी विवेकानंद की जीवनी है।स्वामी विवेकानंद की जीवनी से हमें बहुत कुछ सिखने को मिलता है। हमें उनके आदर्शो व सिद्धांतो पर चलना चाहिए ताकि एक सभ्य समाज का निर्माण हो सके। स्वामी जी एक सच्चे देशभक्त व आदर्श पुरुष थे। जो अपने गुरु व समाज सेवा के प्रति समर्पित थे। आपको biography of swami vivekanand in hindi कैसी लगी। स्वामी विवेकानंद की जीवनी के सम्बन्ध में आप कोई भी सवाल कमेंट बॉक्स में पूछ सकते है। biography of swami vivekanand एक बहुत बड़ी जीवनी है पर इसे आपके लिए शॉर्ट में लिखा गया। ताकि आप भी उनके बारे में जाने सको। स्वामी जी के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप नॉवल्स भी पढ़ सकते है।

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