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सुखदेव थापर की जीवनी Sukhdev Thapar biography in hindi

सुखदेव थापर की जीवनी

सुखदेव थापर की जीवनी-Sukhdev Thapar biography in hindi : आज हम इस लेख में भारत माता के अनेक वीर सपूतों में से एक सच्चे सपूत सुखदेव थापर की जीवनी (Sukhdev thapar ki jiwani ) के बारे में चर्चा करेंगे। आजादी की लड़ाई में अनेक लोगो ने अपने प्राण न्योछावर किये है। इतिहास में ऐसे कई गुमनाम है, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए शहादत तो दी, लेकिन इतिहास के पन्नो पर उनका कोई नाम नहीं है। उनकी वीरता को ऐसे भुला दिया गया है, जैसे उन्होंने मातृ भूमि के लिए कुछ किया ही न हो।

सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु भी इन गुमनामों में कुछ विख्यात महान क्रांतिकारी नेता थे। लोगो ने इनके बलिदान को भुला दिया, लेकिन आज भी सच्चे देशप्रेमियों के दिलो में ये तीनों  क्रांतिकारी नेता एक दहकती हुई आग की तरह जिन्दा है। जब वर्ष 1919 में जलियाँवाला बाग का भीषण नरसंहार हुआ, तब सुखदेव 12 वर्ष के थे। उस समय पुरे देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बना हुआ था। पंजाब के प्रमुख नगरों में चक्का-जाम कर दिए गए थे। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को सैल्यूट करना पड़ता था।  लेकिन सुखदेव कठोरतापूर्वक से मना कर देते थे, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ती थी।

सुखदेव थापर का जीवन परिचय एक नजर में

नाम सुखदेव थापर
जन्मदिन 15 मई 1907
जन्मस्थान लुधियाना पंजाब
पिता का नाम श्री  रामलाल
माता का नाम श्रीमती रल्ली देवी
भाई का नाम मथुरादास
भतीजे का नाम भरत भूषण
धर्म हिन्दू
संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
राजनैतिक आंदोलन भारत की स्वतन्त्रता में योगदान
सम्मान 23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है
मृत्यु (शहादत) 23 मार्च 1931 (फांसी)

सुखदेव थापर का जन्म परिवार

सुखदेव थापर का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब शहर के लुधियाना में हुआ था। सुखदेव के पिताजी का नाम रामलाल और माताजी का नाम श्रीमती रल्ली देवी था। सुखदेव के भाई का नाम मथुरादास थापर था और भतीजे का नाम भरत भूषण थापर था। सुखदेव और भगतसिंह में गहरी दोस्ती थी। सुखदेव के जन्म से 3 महीने पूर्व ही इनके पिताजी का देहांत हो गया था।

पिता के देहांत के बाद सुखदेव के पालन पोषण में इनके ताऊजी अचिन्तराम और ताईजी ने पूरा साथ दिया। सुखदेव की ताईजी भी इनसे बहुत प्रेम करती थी। वे दोनों इन्हें अपने पुत्र की तरह प्रेम करते थे और सुखदेव भी इनका बहुत सम्मान करते थे। इनकी हर बात मानते थे।

सुखदेव थापर की शिक्षा प्रारम्भिक जीवन

सुखदेव का प्रारम्भिक जीवन लायलपुर में व्यतीत हुआ और यही पर इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। बाद में आगे की पढ़ाई के लिये उन्होंने नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। इस कॉलेज में अधिकतर उन विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था जिन्होंने असहयोग आन्दोंलन में अपने स्कूलों को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में भाग लिया था। इस कॉलेज में ऐसे अध्यापक नियुक्त किये गये थे, जो राष्ट्रीय चेतना से पूर्ण इन युवाओं को देश का नेतृत्व करने के लिये तैयार कर सके। ऐसे राजनैतिक और क्रान्तिकारी वातावरण में राष्ट्रीय भावना से प्रेरित सुखदेव के मन में क्रान्ति की चिंगारी ओर भी ज्यादा दृढ़ हो गयी।

इसी नेशनल कॉलेज में सुखदेव की मित्रता भगत सिंह, यशपाल और जयदेव गुप्ता से हुई। इन सभी के एक जैसे विचार थे, जिससे इनमे घनिष्ट मित्रता हो गयी। ये सब एक दूसरे का साथ देते और एक दूसरे को सलाह भी देते थे। ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर अपने शिक्षकों के साथ शरारत करते थे। जब पढ़ने का मन नहीं होता, तो अपने दोस्तों के साथ मिलकर प्रोफेसर को क्लास न लेने के लिए विवश कर देते थे। (सुखदेव थापर की जीवनी)

एक दिन प्राफेसर सौंधी सम्राट अशोक के शासन काल पर लेक्चर दे रहे थे। भगत सिंह, सुखदेव और यशपाल का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। वे क्लास बंक करना चाहते थे, लेकिन प्रोफेसर के क्लास में रहते हुये वे ऐसा नहीं कर सकते थे। फिर क्या था, इन तीनो ने प्रोफेसर को भगाने के लिए योजना बनाई। भगत सिंह ने खड़े होकर पूछा- श्रीमान सुना है कि अंग्रेज भारत में भिक्षुक बनकर आये थे और बाद मे यहाँ के शासक बन गये। क्या यह सत्य है ?

उस समय प्राफेसर सौंधी अशोक की न्यायप्रियता के बारे में बता रहे थे। फिर भगत के इस सवाल को सुनकर उन्हें गुस्सा आ गया और भगत सिंह को डाँटते हुये कहा- तुम से कितनी बार कहा है कि मेरे लिंक ऑफ थाट को डिस्टर्ब मत किया करो, लेकिन तुम मेरी सुनते कहाँ हो।

इससे पहले कि प्रोफेसर की बात पूरी हो सुखदेव ने उठकर कहा- सर! यह भगत सिंह बिल्कुल नालायक है। कहाँ आप शाहजहां के शासनकाल के बारे में पढ़ा रहे थे और कहाँ यह अंग्रेजों की बातें ले बैठा है।

इतना सुनते ही प्रोफेसर को ओर अधिक गुस्सा आ गया और गुस्से में बोले – व्हाट डू यू मीन बाई शाहजहां? मैंने कब शाहजहां का नाम लिया?इससे पहले प्रोफेसर कुछ ओर कहते, यशपाल ने तुरंत उठकर कहा- सर मैं इन दोनों से कह रहा था कि आप मोहम्मद तुगलक के पागलपन के बारे में बता रहे थे, लेकिन इन दोनों को मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ।

फिर प्रोफेसर झल्लाकर बोले – तुम सब एकदम नालायक हो। मैं तुम लोगों को नहीं पढ़ा सकता। इतना कहकर वे क्लास से बाहर चले जाते है। इस तरह ये प्रोफ़ेसर को परेशान किया करते थे और क्लास बंक किया करते थे। (सुखदेव थापर की जीवनी)

सुखदेव का परिवार आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देश भक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। सुखदेव ने युवाओं में न सिर्फ देशभक्ति का जज्बा भरने का काम किया, बल्कि स्वयं भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

वर्ष 1928 में जब क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए पुलिस उपाधीक्षक जे.पी सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया था, तब से सुखदेव का नाम जाना जाने लगा है। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और पूरे देश में क्रांतिकारियों की जय-जय कार हो रही थी। सांडर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया। बाद में इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई गई।

उन्होंने अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के साथ लाहौर में “नौजवान भारत सभा” की शुरुआत की। उन्होंने मुख्य रूप से युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने और सांप्रदायिकता को खत्म करने के लिए प्रेरित किया था। सुखदेव हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सदस्य थे और उन्होंने पंजाब व उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों के क्रांतिकारी समूहों को संगठित किया था।

सुखदेव थापर का क्रांतिकारी जीवन-सुखदेव थापर की जीवनी

सुखदेव हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सदस्य थे। सुखदेव पंजाब व उत्तर भारत के अन्य शहरों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ सम्भालते थे। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में युवाओं को भारत का गौरवशाली इतिहास बताकर उनमें देशभक्ति जगाने का कार्य किया। वर्ष 1926 में लाहौर में सुखदेव ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर “नौजवान भारत सभा”  की स्थापना की। जिसका कार्य देश में युवाओं को स्वतन्त्रता के महत्व को समझाना और आजादी के लिए संघर्ष करना था।

इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। असहयोग आन्दोलन की विफलता के बाद  “नौजवान भारत सभा” ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकर्षित किया। शुरू में इसके कार्य नैतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम, भारतीय संस्कृति व सभ्यता पर विचार करना था।

इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ दिलाई जाती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा, परन्तु कुछ मतभेदों के कारण यह सभा अधिक सक्रिय रूप से कार्य नही कर सकी। अप्रैल 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ और  इसका नाम “नौजवान भारत सभा”  ही रखा गया। इसका मुख्य केन्द्र अमृतसर बनाया गया। (सुखदेव थापर की जीवनी)

सुखदेव को फांसी लाहोर षड्यंत्र के कारण दी गयी थी। जबकि भगत सिंह और राजगुरु पर अन्य मुकदमे चल रहे थे। इनके लिए फांसी का समय एक ही निर्धारित किया गया था। लाहोर षड्यंत्र का मुख्य कारण साइमन कमीशन था। सुखदेव ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में देश की तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को बदलकर रख दिया था। सुखदेव की फांसी ने देश के लाखों युवाओं को देश हित के लिए प्राण न्योछावर देने के लिए प्रेरित किया।

सुखदेव भगत सिंह के अन्तरंग मित्र थे। वह उनके सभी कार्यों में कदम से कदम मिलाकर सहयोग करते थे। सुखदेव भगत सिंह के परम हितैषी भी थे। सुखदेव व भगत सिंह संगठन के क्रान्तिकारी गतिविधियों के पीछे निहित उद्देश्यों को आम जनता के सामने स्पष्ट करने का समर्थन करते थे। उन्हें लाहौर षड़यंत्र के लिये गिरफ्तार करके जेल में रखा गया। उस समय भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर राजनैतिक कैदियों के अधिकारों लिये भूख हड़ताल की जिसमें सुखदेव भी शामिल हुये।

साइमन कमिशन का विरोध

सन्न 1927 में ब्रिटिश सरकार ने एक कमीशन का गठन किया। जिसका कार्य भारत में राजनीतिक परिस्थितयों का विश्लेषण करना था। इसका नेतृत्व साइमन कर रहे थे। इसलिए इसे “साइमन कमिशन” के नाम से जाना गया। इस कमीशन में कोई भी भारतीय नहीं था। जिससे इसका पुरे भारत में घोर विरोध हुआ।

सन्न 1928 लाला लाजपत राय साइमन कमीशन के विरोध में एक रैली को सम्बोधित कर रहे थे। तभी जेम्स स्कॉट ने रैली में शामिल लोगो पर लाठी चार्ज शुरू करा दी। इस लाठी चार्ज में लालजी बुरी तरह से घायल हो गए थे। उन्होंने घायल अवस्था में कहा कि मुझ पर लगने वाली एक-एक लाठी, अंग्रेजो के ताबूत में लगने वाले एक-एक कील के समान होगी।

इसके साथ ही उस सभा में वन्दे मातरम का जयघोष होता गया। इस सभा में लाला लाजपत राय शहीद हो गए थे। इस पूरी घटना पर इस पूरी गतिविधि पर सुखदेव और उनके साथी नजर रखे हुए थे। लालाजी की देहांत ने उन लोगो को  बहुत आक्रोशित कर दिया।

फिरोजशाह किले की बैठक

सितम्बर 1928 को भगत सिंह, सुखदेव व शिवशर्मा के प्रयासों से सभी क्रान्तिकारियों को संगठित करने के उद्देश्य से उत्तर भारत के क्रान्तिकारी प्रतिनिधियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह किले के खण्डरों में आयोजित की गयी। इस बैठक में विभिन्न प्रान्तों के क्रान्तिकारी नेता शामिल थे।

इस बैठक में पंजाब से भगत सिंह और सुखदेव, बिहार से फणीन्द्रनाथ घोष, मनमोहन बैनर्जी, राजपूताना से कुन्दनलाल और युगप्रान्त से शिववर्मा, जयदेव, विजयकुमार सिन्हा, ब्रह्मदत्त मिश्र, सुरेन्द्र पाण्डेय शामिल थे। चन्द्रशेखर आजाद इस बैठक में शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने आश्वासन दिया था कि जो भी निर्णय लिया जायेगा वे स्वीकार कर लेंगे। ये सभी युवा क्रान्तिकारी एक संगठन के आधार पर क्रान्ति का एक नया मार्ग अपनाना चाहते थे।

दिल्ली की बैठक में भगत सिंह और सुखदेव ने सभी प्रान्तों से प्रतिनिधि लेकर एक केन्द्रीय संगठन बनाया। इस संयुक्त संगठन का नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी रखा गया। इसी सभा में सुखदेव को पंजाब प्रान्त का प्रतिनिधि संगठनकर्ता नियुक्त किया गया। साथ ही पंजाब में होने वाली सभी क्रान्तिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करने का उत्तरदायित्व दिया गया।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला

सन 1928 में साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी थी। जिससे ब्रिटिश सरकार ने स्कॉट के खिलाफ एक्शन लेने से और लाला लाजपत राय की मृत्यु की जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया था। इस वजह से सुखदेव ने भगत सिंह और राजगुरु के साथ मिलकर स्कोट से बदला की योजना बनाई।

18 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, शिवराम व राजगुरु ने स्कॉट की गोली मारकर हत्या करने की योजना बनाई। लेकिन यह योजना सफल नहीं हो पाई। गोली स्कॉट की जगह जे.पी. सांडर्स को लग गयी।  इसमे भगत सिंह का सहयोग सुखदेव और चन्द्र शेखर आज़ाद ने किया था। इस वजह से ब्रिटिश पुलिस सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु व चंद्रशेखर आज़ाद के पीछे हाथ धोकर पड़ गयी।

लाहौर षड्यंत्र-(सुखदेव थापर की जीवनी)

जे.पी. सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर में पुलिस ने हत्या के आरोपियों को खोजना शुरू कर दिया था। इस वजह से लाहौर में इनके लिए अपनी पहचान छुपाना मुश्किल हो रहा था। पुलिस से बचकर भागने के लिए सुखदेव ने भगवती चरण वोहरा की मदद मांगी। भगवती चरण वोहरा ने अपनी पत्नी और अपने बच्चे की जान जोखिम में डालकर उनकी मदद की। इस तरह से भगत सिंह वहाँ से बच निकले। बाद में सुखदेव को इस पूरी घटना के  कारण लाहौर षड्यंत्र में सह-आरोपी बनाया गया।

नाई की मंडी में बम बनाना सीखना

लाहौर षड्यंत्र से फरार होने के बाद कलकत्ता में भगत सिंह की मुलाकात यतीन्द्र नाथ से हुई। ये बम बनाने की कला को जानते थे। उनके साथ रहकर भगत सिंह ने गनकाटन बनाना सीखा। इसके बाद अन्य साथियों को यह कला सिखाने के लिये आगरा में दल को दो भागों में बाँटा गया तथा बम बनाने का काम सिखाया गया। नाई की मंडी में बम बनाने का तरीका सिखाने के लिये पंजाब से सुखदेव व राजपूताना से कुंदनलाल को बुलाया गया। यहाँ रहकर सुखदेव ने बम बनाना सीखा और यहीं पर उन बमों का भी निर्माण किया गया, जिनका उपयोग असेंम्बली बम धमाके के लिये करना था।

सुखदेव की गिरफ्तारी-(सुखदेव थापर की जीवनी)

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया था। जिस वजह से गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। अपराधियों के नाम घोषित होते ही पुलिस ने लाहौर में “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की बम फेक्ट्री पर छापे मारकर क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया।

हंस राज वोहरा,जय गोपाल और फणीन्द्र नाथ घोष सरकार के समर्थक बन गए। जिस कारण 15 अप्रैल 1929 को सुखदेव,जतिंद्र नाथ दास, किशोरी लाल और शिवराम राजगुरु को मिलाकर कुल 21 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया। इन क्रांतिकारियों के खिलाफ सेक्शन 307 इंडियन पैनल कोड और कोर्ट ऑफ़ एडीएम दिल्ली के अंदर विस्फोटक गतिविधयो के लिए सेक्शन 3 के अंतर्गत 7 मई 1929 को चालान पेश किया गया। सुखदेव चेहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। सुखदेव ने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे।

इसके साथ ही महात्मा गाँधी को जेल से लिखा पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवरण देता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गाँधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष कसते हुए सुखदेव ने लिखा कि मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।

12 जून 1929 को अदालत द्वारा भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जीवन भर कारावास की सजा दी गयी। उसी समय इन पर लाहौर का भी केस चल रहा था इसलिए उन्हें लाहौर भेजा गया। 10 जुलाई 1929 को लाहौर की जेल में लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई शुरू हुई। स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में 32 लोगो के खिलाफ चालान पेश किया गया और इनमें 9 लोग जिनमें चन्द्रशेखर आज़ाद भी शामिल थे। उस समय चन्द्रशेखर को फरार घोषित किया हुआ था। 7 समर्थक और बचे हुए 16 को अपराधी मानकर सुनवाई शुरू की गयी।

जेल में भूख हड़ताल

जेल में मिलने वाले ख़राब गुणवत्ता के खाने को लेकर व जेलर के अमानवीय व्यवहार के कारण कैदियों ने भूख हड़ताल कर दी। कैदियों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया और क्रांतिकारी खाने के लिए दिए गए बर्तनों को बजाकर “मेरा रंग दे बसंती चोला” गाना गाते थे। इसका नेतृत्व भगत सिंह कर रहे थे और उनका साथ सुखदेव राजगुरु,जतिंद्र नाथ जैसे कई क्रांतिकारी दे रहे थे।

यह भूख हड़ताल 13 जुलाई 1929 को शुरू हुई और 63 दिन तक चली थी जिसमें जतिंद्र नाथ दास शहिद हो गए थे। इस वजह से जनता में  भयंकर आक्रोश फ़ैल गया था। इस पूरे घटनाक्रम में सुखदेव भी शामिल थे। जेल में उन्हें और अन्य कैदियों को जबरदस्ती खाना खिलाने की कई कोशिशे की गयी थी। इसके लिए उन्हें बहुत प्रताड़ित भी किया गया लेकिन वो कभी अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुए थे।

लाहौर षड्यंत्र केस की सजा-(सुखदेव थापर की जीवनी)

लाहौर षड्यंत्र केस के लिए 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गयी। जबकि किशोरी लाई रतन,शिव वर्मा, डॉक्टर गया प्रसाद, जय देव कपूर, बेजोय कुमार सिन्हा, महाबीर सिंह और कमल नाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। चंद्रशेखर आज़ाद फरवरी 1931 में अकेले अंग्रेज़ो से लड़ते हुए स्वयं को गोली मारकर शहिद हो गए। भगवती चरण वोहरा मई 1930 को बम बनाने का अभ्यास करते समय शाहिद हो गए थे।

वोहरा ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को जेल से छुड़ाने के लिए प्रयास किया था। देश के सभी बड़े क्रांतिकारी भगत सिंह,सुखदेव व राजगुरु की फांसी का विरोध कर रहे थे। जिनमें वीर विनायक दामोदर सावरकर भी शामिल थे। लेकिन गाँधीजी इस पूरे मामले पर निष्पक्ष थे। गाँधीजी उस समय भी देश की जनता व क्रांतिकारियों से शांति की अपील कर रहे थे।

सुखदेव थापर का गाँधीजी को पत्र

तत्कालीन परिस्थितियों पर सुखदेव ने गाँधीजी को एक लिखा था — आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है। लेकिन क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ?  सन्न 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। जबकि वे अपनी सजा पूरी कर चुके है। (सुखदेव थापर की जीवनी)

बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है। एक दर्जन से अधिक बन्दी फाँसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ? सुखदेव ने यह भी लिखा कि भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए सीधे सरकार की सहायता करना होगा।

सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक माह बाद 23 अप्रैल 1931 को “यंग इंडिया” में छापा था। इस पत्र में सुखदेव ने साफ़ शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये थे और गाँधीजी को इस बात से अवगत कराया था कि उनका उद्देश्य केवल बड़ी-बड़ी बातें करना ही नहीं है बल्कि देश हित के लिए क्रांतिकारी किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसे में गाँधीजी यदि जेल में बंद कैदियों की पैरवी नहीं कर सकते तो उन्हें इन क्रांतिकारियों के खिलाफ नकारात्मक माहौल बनाने से भी बचना चाहिए।

सुखदेव थापर को फांसी-(सुखदेव थापर की जीवनी)

26 अगस्त 1930 को अदालत ने सुखदेव को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6F तथा IPC की धारा 120 के तहत  अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें सुखदेव भगत सिंह, तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।

इसके बाद सुखदेव की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी 1931 को रद्द कर दी गई। 14 फरवरी 1931 को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए अपील दायर की। उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके इंसानियत के नाते  फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने के लिए गाँधीजी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। (सुखदेव थापर की जीवनी)

23 मार्च 1931 को शाम को करीब 7 बजकर 33 मिनट पर सुखदेव, भगत सिह और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। चूँकि लाहौर षड्यंत्र के लिए सुखदेव,भगत सिंह और राजगुरु को 24 मार्च 1931 को फांसी की सजा देनी तय की गयी थी, लेकिन 17 मार्च 1931 को पंजाब के होम सेक्रेट्री ने इसे 23 मार्च 1931 कर दिया। क्योंकि ब्रिटिश सरकार को डर था कि जनता को यदि इनकी फांसी का समय पता चला तो एक और बड़ी क्रांति हो जायेगी, जिससे निपटना अंग्रेजो के लिए मुश्किल होगा। फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से अपना मनपसन्दीदी गाना गा रहे थे –

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥

फाँसी के बाद कोई आन्दोलन न भड़क जाये, इस डर से अंग्रेजों ने पहले उनके मृत शरीर के टुकड़े किये। फिर इन टुकड़ो को बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये। जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। तब गाँव के लोग जलती हुई आग को देखकर नजदीक आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनके शव के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंककर भाग गए। जब गाँव वाले पास आकर शव के टुकड़े देखे, तो उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। (सुखदेव थापर की जीवनी)

इस तरह भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु हमेशा के लिए अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधीजी को भी इनकी मौत का जिम्मेदार समझने लगे।  जब गाँधीजी काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे, तब लोगों ने काले झण्डों के साथ गाँधी जी का स्वागत किया। कहा जाता है कि महात्मा गाँधी चाहते तो भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की फांसी रुकव सकते थे, लेकिन गाँधीजी ने फांसी नहीं रुकवाई। (सुखदेव थापर की जीवनी)

FAQ

Q : शहीद सुखदेव का जन्म कब हुआ था?
Ans : 15 मई 1907

Q : सुखदेव का जन्म कहाँ हुआ था ?
Ans : लुधियाना पंजाब

Q : सुखदेव कौन से जाति के थे?
Ans : थापर

Q : सुखदेव को फांसी कब दी गयी थी ?
Ans : 23 मार्च 1931

Q : सुखदेव के पिता का नाम क्या था ?
Ans : श्री  रामलाल

Q : सुखदेव की माता का क्या नाम था ?
Ans : श्रीमती रल्ली देवी

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