चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी-Chandra Shekhar Azad biography in hindi :- इस लेख में आपको परतंत्र भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद जीवन परिचय के बारे में बताया जा रहा है। यहाँ आपको चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी के साथ में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में बताया जा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम में चंद्रशेखर आजाद का भी अहम् योगदान रहा है। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani)
हम जब भी चंद्रशेखर आजाद का नाम सुनते है तो अपनी मूंछो को ताव देते हुए उस क्रांतिकारी युवा की छवि सामने आती है। जिसने अपनी युवा अवस्था में ही देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। चंद्रशेखर आजाद वह युवा क्रांतिकारी था, जिसने अपने देश के लिए हंसते-हंसते प्राण त्याग दिए। कहने को तो अंग्रेजी साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। लेकिन इतना बड़ा साम्राज्य युवा क्रांतिकारियों से भयभीत था। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
वे शक्तिशाली होकर भी चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) को कभी बेड़ियों में जकड़ ही नहीं पाए। वह अपनी लड़ाई की आखिरी साँस तक आजाद ही रहा। चंद्रशेखर आज़ाद एक महान भारतीय क्रन्तिकारी थे। उनकी उग्र देशभक्ति और साहस ने उनकी पीढ़ी के लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह के सलाहकार होने साथ साथ एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। भगत सिंह के साथ उन्हें भारत के सबसे महान क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है।
चन्द्रशेखर आज़ाद का जीवन परिचय एक नजर में
नाम | चन्द्रशेखर आज़ाद |
जन्म | 23 जुलाई 1906 |
जन्म स्थान | भावरा, मध्य प्रदेश |
पिता का नाम | पंडित सीताराम तिवारी |
माता का नाम | जगरानी देवी |
पत्नी का नाम | लीना मारिया पॉल |
राजनीतिक कैरियर | क्रांतिकारी नेता, स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिक कार्यकर्ता |
सम्बंधित | हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन ) |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
निधन | 27 फरवरी, 1931 |
चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म तथा प्रारंभिक जीवन
चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को एक ब्राह्मण परिवार में मध्यप्रदेश के भाबरा गाँव में हुआ था। बाद में इस गांव का नाम चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्मान में चन्द्रशेखर आज़ाद नगर कर दिया गया है। चन्द्रशेखर आज़ाद के पिताजी का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माताजी का नाम जगरानी देवी था। पंडित सीताराम तिवारी तत्कालीन अलीराजपुर(वर्तमान में मध्य प्रदेश में) की रियासत में सेवारत थे।
मूल रूप से उनका परिवार उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदर गाँव से था। लेकिन सीताराम तिवारी को किसी कारणवश अपने पैतृक गांव को छोड़कर मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में निवास करना पड़ा। यह भील जनजाति बहुल इलाका था। इस वजह से बालक चंद्रशेखर को भील बालकों के साथ धनुर्विद्या और निशानेबाजी करने का अच्छा अवसर मिल गया।
इस तरह निशानेबाजी उनका शौक बन गया। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। बाद में माताजी जगरानी देवी की जिद के कारण चंद्रशेखर आज़ाद को काशी विद्यापीठ में संस्कृत अध्ययन के लिए बनारस जाना पड़ा। चंद्रशेखर बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। पढ़ाई से ज्यादा उनका मन खेल गतिविधियों में लगता था। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani)
अब बालक चन्द्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) का मन देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक तरीके से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल “हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ” के नाम से जाना जाता था।
चन्द्रशेखर आज़ाद के जीवन की पहली घटना-(चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
सन् 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग हत्याकांड ने देश के सभी नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। आज़ाद को इस अमानवीय कृत्य से बहुत गुस्सा आया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का फरमान जारी किया तो उन्होंने आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उनकी यह आग ज्वालामुखी बनकर फुट पड़ी थी। सभी छात्रों के साथ चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। आज़ाद इस आंदोलन में भाग लेने पर पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 कोड़ो की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है-
ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 14 या 15 साल की थी और जो अपने आप को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह ‘भारत माता की जय!’ चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।
पण्डित चंद्रशेखर तिवारी को उनके दोस्त पंडितजी, बलराज और क्विक सिल्वर जैसे कई उपनामों से बुलाते थे, लेकिन आजाद उपनाम उन्हें पसंद था। उन्होंने अपने नाम के साथ तिवारी की जगह आजाद लिखना पसंद किया। चंद्रशेखर को जाति बंधन भी स्वीकार नहीं था। आजाद उपनाम कैसे पड़ा, इस सम्बन्ध में भी एक रोचक कहानी है। हालांकि इस कहानी का पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जिक्र किया है लेकिन यह शुरूआती दौर से ही उनके बारे में सुनी-सुनाई जाती रही है।
गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के सामने आज़ाद को पेश किया गया। पारसी मजिस्ट्रेट मिस्टर खरेघाट अपनी कठोर सजाओं के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कड़क कर चंद्रेशेखर (Chandra Shekhar Azad) से पूछा- (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी- Chandra Shekhar Azad ki jiwani)
क्या नाम है तुम्हारा? चंद्रशेखर ने संयत भाव से उत्तर दिया- मेरा नाम आजाद है। मजिस्ट्रेट ने दूसरा सवाल किया- तुम्हारे पिता का क्या नाम है? आजाद का जवाब फिर लाजवाब था- उन्होंने कहा मेरे पिता का नाम स्वाधिनता है। एक बालक के उत्तरों से चकित मजिस्ट्रेट ने तीसरा सवाल किया- तुम्हारी माता का नाम क्या है? आजाद का जवाब था- भारत मेरी मां है और जेलखाना मेरा घर है। बस फिर क्या था गुस्साए मजिस्ट्रेट ने चंद्रशेखर को 15 कोड़े लगाने की सजा सुना दी।
बालक चंद्रशेखर (Chandra Shekhar Azad) को 15 कोड़े लगाए गए लेकिन उन्होंने उफ्फ तक न किया। हर कोड़े के साथ उन्होंने भारत माता की जय का नारा लगाया। अंत में सजा भुगतने के बाद में उन्हें तीन आने दिए गए जिसे भी उन्होंने जेलर के मूंह पर फेंक मारा था। इस घटना के बाद लोगों ने उन्हें आजाद बुलाना शुरू कर दिया। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
आज़ाद की झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
चंद्रशेखर आज़ाद ने एक विश्चित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया था। झांसी से 15 km दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण दिया करते थे। इसके साथ-साथ वह पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।
क्रान्तिकारी संगठन और काकोरी कांड-(चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
जब फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद बिना किसी से पूछे गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो सभी नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया। इसके बाद पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (H.R.A.) का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हुए।
इस दल ने गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालना शुरू की ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके। लेकिन इस लूट में यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के 8 सदस्यों पर (जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे) पूरे गाँव ने हमला कर दिया।
तब बिस्मिल घर के अंदर घुसे तथा उस औरत के कसकर थप्पड़ मारा और पिस्तौल वापस छीनकर आजाद (Chandra Shekhar Azad) को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इस घटना के बाद दल ने केवल सरकारी संस्थाओ को ही लूटने का फैसला किया। फिर 1 January 1925 को दल ने पुरे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था।
इस पर्चे में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। जब शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में लगाने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। H.R.A. के गठन के समय से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं – बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani)
इस संघ की योजना के अनुसार 9 August 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका मत था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ देगा और बाद में ऐसा हुआ भी। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
दल के 10 सदस्यों ने इस लूट को अंजाम तक पहुँचाया था और अंग्रेजों के खजाने को लूट कर उनके सामने चुनौती पेश की थी। इस घटना के बाद दल के ज्यादातर सदस्य गिरफ्तार हो गए थे और दल बिखर गया था। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं पाए। लेकिन अन्य प्रमुख क्रांतिकारी वीरों- पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को 19 December 1927 तथा उससे 2 दिन पहले राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को 17 December 1927 को फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया।
इन प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद यह दल निष्क्रिय रहा। एक दो बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने के लिए योजना भी बनायीं गयी। इस योजना में चंद्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) व भगत सिंह भी शामिल थे। लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।
अंततः 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 को कड़ी कैद की सजा मिली। इसके बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्रित कर 8 September 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इस सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया और तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में शामिल करने होंगे।
विचार-विमर्श के बाद एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल करते हुए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन” का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन” रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के बाद एक नया लक्ष्य तय किया गया – “हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है- जीत या मौत।
लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला
17 दिसम्बर 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को घेर लिया। जैसे ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने साडंर्स के मस्तक पर दाग़ दी। फिर वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा।
फिर भगतसिंह ने आगे बढ़कर 4-5 गोलियाँ ओर दाग दी, जिससे वह वही मृत्यु को प्राप्त हो गया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी गोली से उसे भी मार दिया। लाहौर नगर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया।
केन्द्रीय असेंबली में बम-(चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
चन्द्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। यह विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था। इस काण्ड के बाद क्रान्तिकारी बहुत लोकप्रिय हो गए थे। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे कोर्ट को अपना प्रचार मंच बनाना चाहते थे।
चन्द्रशेखर आज़ाद का व्यक्तिगत जीवन-चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी
आज़ाद एक देशभक्त होने के साथ वेश बदलने में भी माहिर थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया था। एक बार वह संगठन के लिये धन जुटाने के लिए गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे, ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति प्राप्त कर सके। लेकिन मरणासन्न साधु उनके पहुँचने के बाद ओर अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा। यह सब देख के आज़ाद वापिस लोट आये।
उस समय सभी क्रान्तिकारी रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे। लेकिन आज़ाद स्वयं पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे। एक बार वह दल के गठन के लिये बम्बई गये, तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani )
उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा शुरू किया गया आन्दोलन ओर तेज हो गया। उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक सवतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आज़ाद की शहादत के 16 वर्षों बाद 15 August 1947 को हिन्दुस्तान की आजादी का सपना पूरा। लेकिन वे उसे जीते जी देख न सके। उनके सभी साथी उन्हें पण्डितजी कहकर सम्बोधित किया करते थे। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की सजा कम कराने का प्रयास
HSRA द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन क्रन्तिकारी- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य दण्डित क्रांतिकारियों में से सिर्फ 3 ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
11 February 1931 को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन क्रांतिकारियों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी, लेकिन उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने के लिए काफी प्रयास किये। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani )
आज़ाद उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर आजाद इलाहाबाद गये और 20 फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास स्थान आनन्द भवन में मुलाकात की। आजाद ने नेहरू जी से आग्रह किया कि वे गाँधीजी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डाले।
चन्द्रशेखर आज़ाद का शहीद होना-(चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे। उनके एक मुखबिर ने उनके साथ विश्वासघात किया और ब्रिटिश पुलिस को इसकी सूचना दे दी। CID का SSP नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। पुलिस ने पार्क को चारो ओर से घेर लिया और चंद्रशेखर आज़ाद को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया।
दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने 3 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए। यह दुखद घटना 27 February 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जब आजाद के बलिदान की खबर जनता को लगी, तब सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे, लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झंडियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों व शीशियों में भरकर ले जाने लगे। पुरे शहर में आजाद के बलिदान की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी कार्यालयों पर हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये। (चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी)
जब चन्द्रशेखर आज़ाद के शहीद होने की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने सभी काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। शाम के समय में लोगों का एक झुंड पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों द्वारा एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया था।
ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पड़ा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल सम्बोधित क्र रही थी। उन्होंने कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस के बलिदान देने के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मान दिया। वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। (Chandra Shekhar Azad ki jiwani )
6 February 1931 को पं मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद चंद्रशेखर आज़ाद वेश बदलकर उनकी शव यात्रा में शामिल हुए थे। आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सेंट्रल कमेटी के सदस्य वीरभद्र तिवारी अंग्रेजो के ख़बरी बन गए थे और आजाद की जासूसी करने लगे थे। संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता ने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई थी। लेकिन निशाना नहीं लगने से वीरभद्र तिवारी बच गए और गुप्ता की गिरफ्तारी हुई। फिर उन्हें 10 साल की सजा दी गयी।
FAQ
Q : चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म कब हुआ था ?
Ans : 23 जुलाई 1906
Q : चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म कहाँ हुआ था ?
Ans : मध्यप्रदेश के भाबरा गाँव में
Q : चंद्रशेखर आजाद की मौत कब हुई थी?
Ans : 27 फ़रवरी 1931
Q : चंद्रशेखर आजाद का क्या नारा था?
Ans : “मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा”
Q : चंद्रशेखर आजाद की डेथ कैसे हुई?
Ans : 3 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतारने व कई अंग्रेज़ सैनिक घायल के बाद आज़ाद की पिस्तौल में एक गोली बची थी। आज़ाद शत्रु की गोली से मरना नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने स्वयं को ही गोली मार ली। और वीरगति को प्राप्त हुए।
Q : चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी करने वाला कौन था?
Ans : वीरभद्र तिवारी। इसके अलावा कुछ इतिहासकार बताते है कि पं जवाहर लाल नेहरू ने ही अंग्रेजों को चंद्रशेखर के दल के अल्फ्रेड बाग में होने की सूचना दी थी। इसके बाद अंग्रेजों ने उनको घेर लिया था।
Q : चंद्रशेखर आज़ाद कहाँ शहीद हुए थे?
Ans : इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में
Q : चंद्रशेखर आजाद के पिता का क्या नाम था?
Ans : पण्डित सीताराम तिवारी
Q : चंद्रशेखर आजाद की माता का नाम क्या था?
Ans : जगरानी देवी
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