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राणा कुम्भा का इतिहास और जीवनी : Rana Kumbha History in Hindi

राणा कुम्भा का इतिहास और जीवनी : Rana Kumbha History in Hindi

राजस्थान वीरों की भूमि रही है। यहाँ कई ऐसे योद्धाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण भी दाव पर लगा दिए थे। इन्ही वीर योद्धाओ में से एक राणा कुम्भा भी थे। राणा कुम्भा का इतिहास उनके द्वारा किये गए साहसिक कार्य और सर्वाधिक किले निर्माण के लिए जाना जाता है।

उन्होंने वर्ष 1433 से 1468 तक मेवाड़ पर शासन किया था। वे महाराणा कुंभकर्ण या कुंभकर्ण सिंह के नाम से जाने जाते है, लेकिन इतिहास में वे राणा कुम्भा के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है। युद्ध कौशल के अलावा राणा कुंभा को दुर्ग और मंदिरों के निर्माण के लिए भी याद किया जाता है। कुम्भा का स्थापत्य काल स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है।

राजपूत राजाओ में राणा कुम्भा का मान सम्मान बहुत अधिक था। राणा से पहले राजपूत केवल अपनी स्वतंत्रता के लिए छोटा-मोटा संघर्ष करते थे। इन्होंने ही मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराकर राजपूती राजनीति को मजबूत किया था। चित्तौड़ में विश्वविख्यात “कीर्ति स्तंभ” का निर्माण राणा कुंभा ने ही कराया था। इसीलिए राणा कुम्भा को चित्तौड़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता कहा जाता है।

राणा कुम्भा का इतिहास – Rana Kumbha History in Hindi

महाराणा कुंभा राजस्थान के सर्वशक्तिशाली वीर योद्धा थे। उन्होंने अपने आस-पास राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित किया। कुम्भा ने अपने विजयी अभियानों के दौरान कई निर्माण कार्य किये थे। उन्होंने 35 वर्ष की आयु में 32 किलों का निर्माण कराया था। जिनमें चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जैसे सशक्त दुर्ग शामिल है।

इसके अलावा इन दुर्गों में उन्होंने कई मंदिरो का निर्माण कराया है। विश्वविख्यात विजय स्तंभ राणा की विजय का सबूत है। वे शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ अपनी रचनात्मकता कला के लिए भी जाने जाते है। “संगीत राज” को उनकी महान रचना माना जाता है। उनकी यह रचना साहित्य का कीर्ति स्तंभ मणि गयी है।

महाराणा कुम्भा कौन था ?

राणा कुम्भा राजस्थान के वीर योद्धाओं में से एक थे, जिन्हें स्थापत्य कला के लिए याद किया जाता है। वे राणा मोकल के पुत्र थे। राणा कुम्भा अपने पिता की मृत्यु के बाद मेवाड़ के राजा बने थे। उन्होंने अपने शासनकाल में कई युद्ध लड़े थे। मेवाड़ के सिंहासन पर बैठने के बाद उन्होंने अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया।

उन्हें “चितौड़गढ़ दुर्ग” का आधुनिक निर्माता कहा जाता है। वे भारतीय स्थापत्य कला को बढ़ावा देने वाले प्रथम शासक थे। मेवाड़ में निर्मित 84 किलों में से 32 किलों का निर्माण स्वयं कुम्भा ने कराया था। उन्होंने कुंभलगढ़ किले में लगभग 300 मंदिरो का निर्माण करवाया था। इन्होंने राजस्थान का अधिकांश भाग, गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर मेवाड़ को महाराज्य बनाया था।

राणा कुम्भा का जीवन परिचय – Rana Kumbha Biography in Hindi

नाम राणा कुम्भा
उपनाम कुंभकर्ण
पिता का नाम राणा मोकल
माँ का नाम सौभाग्य देवी
राजवंश सिसोदिया राजवंश
शासनकाल 1433 से 1468
राज्यभिषेक 1433
शासन चित्तोड़
पुत्र उदा सिंह (उदयसिंह प्रथम), राणा रायमल
पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी )
मृत्यु 1468
रचना संगीत राज

राणा कुम्भा का प्रारंभिक जीवन – Rana Kumbha History in Hindi

राणा कुम्भा का जन्म सन्न 1423 में मेवाड़ के सिसोदिया वंश में हुआ था। कुम्भा के पिता का नाम राणा मोकल और माता का नाम सौभाग्य देवी था। राणा कुम्भा बचपन से ही पराक्रमी, निडर, साहसी व बुद्धिशाली था। राणा मोकल की हत्या के बाद साल 1433 ई. में सिसोदिया सरदारों ने राणा कुम्भा को मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया।

दरअसल जब मोकल के पिता की मृत्यु हुई, तब राणा मोकल का औपचारिक रूप से राजतिलक कर दिया गया। इस वजह से राज्य का कार्यभार देखने के लिए राणा मोकल की माँ हंसाबाई ने मारवाड़ से अपने भाई रणमल राठौड़ को मेवाड़ में बुलाया था। रणमल राठौड़ अपनी बहन का निमंत्रण पाकर तुरंत राठौड़ सरदारों के साथ मारवाड़ से मेवाड़ पहुँच गया।

रणमल ने मेवाड़ आकर मेवाड़ के पुराने सिसौदिया सरदारों को हटा दिया और अपने राठौड़ सरदारों को नियुक्त कर दिया। इसके बाद सन 1428 में राणा मोकल ने नागौर पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध के दौरान नागौर के शासक फिरोज खान की सहायता के लिए गुजरात के शासक अहमद शाह अपनी सेना लेकर पहुँच गया।

राणा कुम्भा ने बड़ी बहादुरी से गुजरात और नागौर की संयुक्त सेना को युद्ध में हरा दिया। बाद में इस युद्ध को रामपुरा के युद्ध के नाम से जाना गया। बाद में सन 1433 में गुजरात के शासक अहमद शाह ने हार का बदला लेने के लिए मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया। इसके बाद राणा मोकल अहमद शाह का को टक्कर देने के लिए जीलवाडा ( दक्षिणी मेवाड़ ) पहुँच गए।

लेकिन जीलवाडा में चाचा और मेरा ने महपा पंवार के साथ मिलकर षडयंत्र रचकर राणा मोकल की हत्या कर दी। चूँकि राणा मोकल के दादा महाराणा क्षेत्र सिंह को दासी एक दासी से प्रेम हो गया था। चाचा और मेरा उसी दासी के पुत्र थे। जिन्होंने एक दासी पुत्र होने के कारण सही मान-सम्मान नहीं मिलने पर राणा मोकल की हत्या कर दी थी। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

अपने पिता की मृत्यु के दौरान कुम्भा जीलवाड़ा में ही दूसरे कैंप में थे। सिसोदिया सरदारों ने जैसे तैसे करके कुम्भा को सुरक्षित निकला और चित्तौड़गढ़ दुर्ग में ले आए। इसके बाद चित्तौड़ दुर्ग में ही सन 1433 में 10 वर्ष की उम्र में राणा कुम्भा का राज्याभिषेक किया गया। इसके बाद राणा कुम्भा ने राजगद्दी संभालकर अपने पिता के मामा जी रणमल राठौड़ की सहायता अपने पिता के हत्यारों का बदला लिया।

राणा कुम्भा का शासन काल

राजगद्दी पर विराजमान होते ही राणा कुम्भा ने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। साल 1437 ई. में मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को सारंगपुर में बुरी तरह से परास्त किया। अपनी इस विजय के उपलक्ष में उन्होंने चित्तौड़ में विश्व प्रसिद्ध विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।

रणमल राठौड़ कोई षड़यंत्र न रच दे, इस कारण उन्होंने रणमल राठौड़ को मरवा दिया और मंडोर राज्य को अपने अधीन कर लिया। उन्होंने अपने शासनकाल के 7 वर्षों में सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि दुर्गो पर विजय प्राप्त की। इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमद शाह को भी हरा दिया।

राणा कुम्भा के शत्रुओं ने अपनी हार का बदला लेने के लिए कई बार असफल प्रयास किया। मालवा के सुलतान ने 5 बार मेवाड़ पर आक्रमण किया था। इसके अलावा नागौर के शासक शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से मेवाड़ पर आक्रमण किया। लेकिन विजय प्राप्त नहीं कर पाए। आबू के देवड़ों ने भी स्वतंत्र होने के लिए युद्ध किया लेकिन सफल नहीं हुए।

साथ ही मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासको ने मिलकर राणा कुम्भा पर आक्रमण किया। लेकिन उन्हें केवल हार का ही सामना करना पड़ा। कुम्भा ने डीडवाना नमक की खान से टैक्स वसूल किया था। उन्होंने राजस्थान का अधिकांश भूभाग, गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ हिस्सों जीतकर मेवाड़ को महाराज्य बनाया। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

राणा कुम्भा के निर्माण कार्य

राणा कुम्भा को उनके विजयी अभियानों के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यों के लिए भी याद किया जाता है। उन्होंने अपने कार्यकाल में कई दुर्ग,तालाब और मंदिरो का निर्माण कराया था। आधुनिक चितोड़ का निर्माता इन्हे ही कहा जाता है। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला भी इनकी ही देन है। कुम्भा स्थापत्य कला का अच्छा जानकार था।

उन्होंने बंसतपुर को दुबारा बसाया। साथ ही श्री एकलिंग जी के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का विजय स्तंभ भी राणा कुम्भा की मूर्तिकला का परिचय है। उन्होंने यह स्तंभ महमूद खिलजी के नेतृत्व वाली मालवा और गुजरात की सेनाओं पर सारंगपुर युद्ध में वियज प्राप्त करने के उपलक्ष में बनवाया था। इस विजय स्तंभ का निर्माण सन् 1440-1448 के बीच किया गया था।

वर्तमान में यह विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिस और राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिह्न है। इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोश और हिन्दू देवी देवताओं का अजायबघर कहते हैं। यह एक 122 फीट ऊँची और 9 मंजिला ईमारत है। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ विश्व की अद्वितीय कृतियों में से एक है। इसके एक-एक पत्थर पर शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है।

उन्होंने अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग मेंं श्रृंगार चंवरी का निर्माण करवाया था। इसके अलावा उन्होंने  चित्तौड़ दुर्ग में विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण करवाया। इनका स्थापत्य काल स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों, मन्दिरों, तालाबों, विशाल राजप्रसादों और अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करवाया था।

मेवाड़ राज्य के 84 किलों में से 32 किलों का निर्माण खुद राणा कुम्भा ने कराया था। कुंभलगढ़ का किला राणा कुंभा ने ही बनवाया था। कुंभलगढ़ का किला राजस्थान का सबसे ऊंचाई पर स्थित किला है। अरावली पहाड़ों के पश्चिमी भाग में स्थित इस किले की दीवारें 38 किलोमीटर लम्बी हैं। यह दीवार चीन की दीवार के बाद दुनिया की दूसरी सबसे लम्बी दीवार है।

इसके अलावा रणकपुर का तीर्थंकर ऋषभनाथ को समर्पित विश्वप्रसिद्ध जैन मंदिर का निर्माण भी इन्होंने ही कराया था। चित्तौड़ का आदिवर्ष मंदिर भी इन्होंने ही बनाया था। राणा कुम्भा ने अपनी स्थापत्य कला से राजस्थान के इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है। उनकी इस छवि व कला की वजह से उन्हें “परमगुरु” की उपाधि से सम्मानित किया गया है। यह उपाधि लेने वाले वे पहले शासक हैं।

इसके अलावा राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। उन्होंने संगीत के कई ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने चंडीशतक व गीतगोविन्द जैसे ग्रंथों की रचना की थी। इसके अलावा वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तम्भों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा था। “संगीत राज” उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

राणा कुम्भा और रणमल के बीच मतभेद

मेवाड़ में जब रणमल राठौड़ का प्रभाव बढ़ने लगा था, तब उसने सिसोदिया सरदारों को हटाकर मारवाड़ के राठौड सरदारों को नियुक्त करना शुरू कर दिया। जिस वजह से राणा कुम्भा और सिसोदिया सरदारों को किसी भयानक षड़यंत्र का आभास होने लगा। रणमल राठौड राणा कुम्भा की दादी हंसाबाई का भाई था।

इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था और न ही कुम्भा उन्हें कुछ कहने की स्थिति में थे। इसके बाद कुम्भा ने रणमल राठौड को मेवाड़ से बाहर करने की ठानी। इसके बाद कुम्भा ने पुनः सिसौदिया सरदारों को उनके पदों पर नियुक्त किया। इसके बाद राणा कुम्भा ने सिसोदिया सरदारों के साथ मिलकर रणमल राठौड की हत्या करवा दी।

रणमल की मृत्यु के बाद उनका पुत्र राव जोधा अपनी जान बचाने के लिए मारवाड़ की तरफ भाग गया। कुम्भा ने अपनी सेना को राव जोधा का पीछा करने के लिए कहा, ताकि वह पुनः राठौड़ सरदारों को एकत्रित करके मेवाड़ पर आक्रमण न कर सके। कुम्भा की सेना ने राव जोधा का पीछा मारवाड़ तक किया।

इसके बाद कुम्भा की सेना मंडोर पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार संपूर्ण मारवाड़ राणा कुम्भा के अधीन हो गया। लेकिन कुछ साल बाद कुम्भा की दादी हंसा बाई ने राणा कुम्भा और राव जोधा के बीच संधि करवा दी। जिसके बाद मारवाड़ और मेवाड़ की सीमा निर्धारित की गई और मारवाड़ राज्य राव जोधा को सौंप दिया गया था।

राणा कुम्भा के विजयी अभियान 

राणा कुम्भा ने अपने शासनकाल में कई युद्ध किये है। ये एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने एक भी युद्ध नहीं हारा था। इन्होंने अपनी तलवार के दम पर अपनी युद्ध कुशलता का परिचय दिया था। जब राजपूत राजाओं में षड़यंत्र चरम सीमा पर था, तब इन्होंने ही राजपुताना को राजनितिक स्तर पर मजबूत करने का कार्य किया था। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

राणा कुम्भा और सुल्तान महमूद खिलजी के बीच युद्ध

राणा कुम्भा ने अपने पिता के हत्यारो से बदला लेने के लिए अपने चाचा चुंडा सिसोदिया और रणमल राठौड़ को साथ लेकर चाचा व मेरा पर आक्रमण कर दिया। कुम्भा ने इन दोनों को मौत के द्वार में पहुँचा कर अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लिया था। लेकिन चाचा व मेरा का महपा पवार अपनी जान बचाकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में चला गया।

इसके बाद कुम्भा ने महमूद खिलजी को पत्र लिखा और कहा कि महपा पवार को तुरंत मुझे लौटा दे। लेकिन महमूद खिलजी ने इसके जवाब में युद्ध की मांग कर ली। इधर कुम्भा ने भी अपने पिता के हत्यारे महपा पवार को मृत्यु देने के लिए युद्ध की घोषणा कर दी। सन्न 1437 ईस्वी में सारंगपुर के मैदानों में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और राणा कुम्भा के बीच में भीषण युद्ध हुआ।

इसके बाद खिलजी की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। कुम्भा ने खिलजी को चित्तौड़ में 6 महीने तक कैद करके रखा था। इसके बाद खिलजी से हर्जाना लेकर कुम्भा ने उसे मुक्त कर दिया। राणा कुम्भा ने अपनी इस विजय के बाद चितोड़ में विजय स्तंभ का निर्माण करवाया था।

सुल्तान महमूद खिलजी द्वारा कुम्भलगढ़ पर आक्रमण

सारंगपुर युद्ध में मिली करारी हार के बाद भी सुल्तान महमूद खिलजी में कोई सुधर नहीं हुआ। राणा ने अपनी दया भावना दिखाते हुए उसे जीवनदान दिया था, लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा था। उसने एक फिर मेवाड़ पर आक्रमण करके कुंभलगढ़ किले को हथियाने की सोची। लेकिन वह इस प्रयास में विफल रहा।

कुंभलगढ़ किले पर आक्रमण के दौरान खिलजी ने राणा कुंभा के सेनापति दीप सिंह को मार दिया था। उस समय कुम्भा बूंदी में थे। लेकिन जब राणा कुम्भा को इस षड़यंत्र के बारे में पता चला, तब उन्होंने कुंभलगढ़ के लिए प्रस्थान किया और महमूद खिलजी को वापस खदेड़ दिया।

इस बार खिलजी मांडू भाग गया था। सन 1459 में खिलजी ने राणा कुंभा के दुर्ग को हथियाने के लिए पुनः मेवाड़ पर हमला किया था। लेकिन वह पुनः असफल रहा था। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

सुल्तान महमूद खिलजी का गागरोन पर आक्रमण

महमूद खिलजी राणा कुम्भा से बुरी तरह से परेशान हो गया था। वह राणा को हराकर मेवाड़ पर कब्जा करना चाहता था। उसने छोटे-छोटे दुर्गा पर आक्रमण करने की योजना बनाई। खिलजी ने गागरोन किले पर हमला करके उसे अपने अधिकार में कर लिया और राणा कुंभा के सेनापति अहिर को मार दिया।

महमूद खिलजी द्वारा मालगढ़ पर आक्रमण

ख़िलजी ने अपनी योजना अनुसार गागरोन किले पर अधिकार कर लिया था। इसके बाद उसने मालगढ़ किले पर आक्रमण किया, लेकिन यहां राणा कुम्भा पहले से ही युद्ध की तैयारी करके बैठा था। इसके बाद राणा कुम्भा और ख़िलजी के बीच लगभग तीन दिन युद्ध चला, जिसमे ख़िलजी को हार का सामना करना पड़ा।

सुल्तान महमूद ख़िलजी का अजमेर व मालगढ़  पर हमला 

राणा कुम्भा के विजयी अभियानों से मुस्लिम शासक बुरी तरह से परेशान थे। राणा ने इनकी नाक में दम कर रखा था। सुल्तान महमूद ख़िलजी को भी बार-बार हार के कारण गुस्सा आ रहा था। उन्होंने राणा को हराने के लिए मेवाड़ पर चारो तरफ से आक्रमण करने की योजना बनाई।

सन 1455 ईसवी में महमूद ख़िलजी ने अपने पुत्र गयासुद्दीन को रणथम्भौर में आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया और खुद अजमेर में आक्रमण करने के लिए निकल गया। लेकिन सुल्तान महमूद ख़िलजी को हार का सामना करना पड़ा। अजमेर में राणा कुम्भा की जगह गजधर सिंह ने युद्ध लड़ा था। उन्होंने महमूद ख़िलजी को बुरी तरह से खदेड़ा था।

अपनी इस हार का बदला लेने के लिए साल 1457 में महमूद ख़िलजी ने पुनः मालगढ़ पर आक्रमण किया और उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। उस समय कुम्भा गुजरात में थे। जब राणा कुम्भा को इस बात का पता चला तो उन्होंने मालगढ़ लौटकर ख़िलजी को हराकर मालगढ़ को स्वतंत्र कराया। इस तरह सुल्तान महमूद ख़िलजी लगातार मिल रही हार से बौखलाया हुआ था।

शम्स खान और राणा कुम्भा के बीच युद्ध

नागौर के शासक फिरोज खान के 2 पुत्र थे। इसके दोनों ही पुत्र सत्ता के लालची थे। इसलिए दोनों ने ही अपने पिता के खिलाफ षड़यंत्र रचना शुरू कर दिया। फिरोज खान की मृत्यु के बाद शम्स खान ने राणा कुम्भा से सहायता मांगी, ताकि वह नागौर की गद्दी पर बैठ सके। कुम्भा ने राजनीतिक महत्व से शम्स खान की सिंहासन प्राप्त करने में मदद की।

इसके बाद दोनों ने संधि कर ली। इस संधि के अनुसार शम्स खान को विपरीत परिस्थिति में कुम्भा की सहायता करनी थी, लेकिन सिंहासन मिलने के बाद वह बदल गया और संधि के बारे में भूल गया। यह बात राणा को रास नहीं आयी और उन्होंने नागौर पर कब्ज़ा करने की ठानी। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

शम्स खान भी बहुत ध्रुत था। उसने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए गुजरात के शासक सुल्तान कुतुबुद्दीन की पुत्री से विवाह कर लिया था। ताकि युद्ध के समय में वह कुम्भा से मुकाबला कर सके। सुल्तान कुतुबुद्दीन ने अपने दामाद शम्स खान की सहायता के लिए राय रामचंद्र व मलिक गिदई को युद्ध में भेजा। लेकिन राणा कुम्भा ने शम्स खान के साथ इन दोनों को भी बुरी तरह से हरा दिया था।

राणा कुम्भा की मृत्यु

सन 1473 ई.वी में राणा कुंभा अपने पुत्र उदय सिंह के षड़यंत्र के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। राणा कुंभा की मृत्यु के बाद उदय सिंह ने ही मेवाड़ की गद्दी संभाली थी। लेकिन सिक्ख राजपूतों के विद्रोह के कारण उन्हें अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा। इसके बाद उदय सिंह के छोटे भाई राजमल ने सिंहासन संभाला।

राजमल ने सन्न 1473 से 1509 ई. तक मेवाड़ पर शासन किया था। उन्होंने 36 वर्षो तक कुशलतापूर्वक मेवाड़ की सेवा की थी। इनके बाद मेवाड़ पर राणा सांगा ने शासन किया था। राणा सांगा ने सन्न 1509 से 1528 ई. तक मेवाड़ पर शासन किया था। राणा कुम्भा का इतिहास पढ़ रहे है

FAQ

Q :  राणा कुम्भा के समय में दिल्ली का शासक कौन था ?
Ans :  मुहम्मद शाह

Q :  राणा कुम्भा के कितने पुत्र व पुत्रियाँ थी ?
Ans :  राणा कुम्भा के तीन संतान थी। जिनमें दो पुत्र उदा सिंह, राणा रायमल और एक पुत्री रमाबाई (वागीश्वरी ) थी।

Q :  राणा कुम्भा की मृत्यु कैसे हुई थी ?
Ans :  सन 1473 ई. में राणा कुम्भा की मृत्यु अपने पुत्र उदय सिंह के षड़यंत्र के कारण हुई थी। कहा जाता है कि जब कुम्भा भगवान शिव की पूजा कर रहे थे, तब उनके ही पुत्र उदय सिंह ने षड़यंत्र रचकर कुम्भा की गर्दन काट दी थी।

Q :  कीर्ति स्तंभ का निर्माण किसने कराया था ?
Ans :  राणा कुम्भा ने

Q :  राणा कुम्भा ने अपने शासन काल में कितने दुर्गो का निर्माण कराया था ?
Ans :  32

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