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स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी biography of swami dayanand saraswati

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स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी के बारे में अपने स्कूल में या कॉलेज में पढ़ा होगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती को समाज सुधारक व आर्य समाज की स्थापना के लिए जाना जाता है। मैं आपको यहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के समाज-सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी के बारे में बताऊंगा। स्वामी जी एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने हर बुराई का खुलकर विरोध किया तथा भारतवर्ष में व्याप्त हर पाखंड-ढोंग, सामाजिक कुरूतियो का और अंग्रेजी शासन का जमकर विरोध किया तथा विरोधियो से जमकर लोहा लिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती भारतीय संस्कृति तथा समाज के उद्धारक के लिए जाने जाते है। स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक ,समाज,सुधारक तथा महान देशभक्त और भारत माता के सच्चे सपूत है।

जिन्होंने भारत के राजनीतिक दर्शन और संस्कृति के विकास के लिए कड़ा प्रयास किया। स्वामी जी ने अपना सर्वस्व जीवन राष्ट्रहित के उत्थान, समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। आज मैं आपको ऐसी महान आत्मा तथा महापुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी के बारे में बताने जा रहा है। आइये जानते है स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी।

Table of Contents

स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी- biography of swami dayanand saraswati

स्वामी दयानन्द सरस्वती एक आदर्श पुरुष थे। वे आर्य समाज के संस्थापक और समाज सुधारक के रूप में जाने जाते है। अतः ऐसे महापुरुष पर अनेक लोगो व लेखकों ने जीवनी लिखी है। जिसमे स्वामी जी द्वारा किये गए कार्यो को दिखाया गया है। आइये जानते है स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म तथा प्रारंभिक जीवनी

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा गांव में हुआ था।  स्वामी जी का जन्म एक धनी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्वामी जी का जन्म ( बच्चपन का ) नाम मूलशंकर तिवारी था। इनके पिता जी का नाम करशनजी लालजी तिवारी था। वे एक टैक्स कलेक्टर थे। स्वामी जी की माता का नाम यशोदाबाई था। वह एक गृहिणी और धार्मिक महिला थी। सवामी जी का परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था। जिससे उनका पालन -पोषण अच्छे से हुआ था। बचपन से ही स्वामी दयानन्द सरस्वती कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। घर में धार्मिक माहौल तथा माता जी के अच्छे संस्कारों का बालक दयानन्द सरस्वती पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा।

बाल्यावस्था से ही स्वामी जी अच्छे संस्कारो के धनी तथा तेजस्वी थे। उन्होंने बाल्यकाल में ही उपनिषदों, वेदो, धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन करना शुरू कर दिया था। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 12 साल की उम्र में ही गायत्री मंत्र का उच्चारण करना सीखा लिया।  स्वामी जी में एक ज्ञानी पंडित बनने के सरे कुशल गुण थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि रखा। एक नारा दिया  ‘वेदों की ओर लौटो’। यह उनका प्रमुख नारा था।

उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं होने लगी थी जिसके कारण उन्होंने हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछना शुरू कर दिया। स्वामी जी बाल्यकाल से ही मूर्तिपूजा का विरोध करने लग गए थे। एक बार हुआ ऐसा की बालक मूलशंकर अपने परिवार के साथ शिव मंदिर में एक जागरण के लिए गए हुए थे। यह घटना शिवरात्रि की है।एक्चुअली शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक शिव मन्दिर में ही रुका हुआ था। रात्रि में जागरण के बाद उनका पूरा परिवार सो गया।और वे खुद जागते रहे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी
स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

वे इस बात का मनन कर रहे थे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। अचानक उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग (प्रसाद ) को चूहे खा रहे हैं तथा चूहे शिव जी की प्रतिमा के ऊपर भी चढ़ रहे है। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।

उनकी छोटी बहन और चाचा जी की हैजे के कारण मृत्यु हो गयी थी। जिसके कारण वे जीवन-मरण के अर्थ पर अधिक गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिनका जवाब उनके माता पिता के पास नहीं होता था।
इस वजह से उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का फैसला किया। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का ज्ञान की खोज के लिए घर से निकलना

वह बहुत असमंजस में थे। वह अपने सवालों के जवाब जानना चाहते थे। उन्होंने बहुत सोच विचार करने के बाद यह तय किया कि उनके सभी प्रश्नो का जवाब किसी महत्मा से ही मिल सकते है। इसीलिए उन्होंने 21 साल की उम्र में घर छोड़ना उचित समझा। 1846 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में जीवन बदल देने वाला नया मोड़ आया। वे घर से निकल पड़े। कुछ समय तक वे भ्रमण करते रहे। एक दिन अचानक भ्रमण करते हुए उनकी भेंट गुरु विरजानन्द से हुई। उन्होंने गुरुवर के समक्ष अपनी समस्या रखी। गुरु विरजानन्द ने बालक मूलशंकर के कुशाग्र बुद्धि को परखा और उन्हें अपना शिष्य बना लिया।    ( स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी )

गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द से गुरु दक्षिणा के रूप में कुछ मांगा और गुरु ने कहा , ”विद्या को सफल कर दिखाओ”, ”परोपकार करो”, ”सत्य शास्त्रों का उद्धार करो”, ”मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ”, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो”, ”वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र प्रसार करो”। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी कि -मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।

महर्षि दयानन्द सरस्वती  ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई। स्वामी जी ने अनेक शास्त्रार्थ किए। वे कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिन्दी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था कि मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक संपन्न नहीं है। परंतु अलग अलग भाषा,अलग अलग शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना बहुत बहुत बुरा होता है।

स्वराज के प्रथम संदेशवाहक:-First messenger of freedom 

अधिकांश लोग स्वामी दयानन्द सरस्वती को केवल आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जानते है। स्वराज के लिए किये गए प्रयासों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को पता है। राष्ट्र को आजाद कराने के लिए बहुत सारे लोग और क्रांतिकारी वीर अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार सहन कर रहे थे। परन्तु किसी में अंग्रेजी हुकूमत का खुलकर विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। क्रांतिकारी जो भी करते छुप छुप के करते थे।

सच में, पराधीन भारत (आर्यावर्त) में यह कहने का साहस सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि “भारत भारतीयों का है”। पराधीन भारत की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति भी सन् 1857 में  स्वामी दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी। इस क्रांति के प्रमुख सूत्रधार भी स्वामी जी ही थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। अपने प्रवचनों के माध्यम से वे लोगो में देशभक्ति के बीज बोने का काम रहे थे और स्वतंत्रता सेनानियों को क्रांति का सन्देश देते थे। सन्न 1855 में जब हरिद्वार में कुम्भ मेला लगा था तब उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने आबू पर्वत से हरिद्वार तक की यात्रा पैदल थी। साथ में ,स्वामी जी अपनी यात्रा के दौरान जगह जगह प्रवचन देते गए। इस यात्रा से उन्होंने लोगो की परेशानियों का अवलोकन करना शुरू किया तथा देशवासियों की नब्ज टटोली। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं। स्वामी जी जहाँ भी प्रवचन देते उन्हें अंग्रेजी शासन से दुखी लोग मिलते और लोगो में आजादी की चाह देखते थे। स्वामी जी ने भारत भ्रमण किया और लोगो की नब्ज टटोली। यहाँ से स्वामी को 1857 की क्रांति के बीज बोने शुरु किये। उन्होने लोगो से मिलना शुरू किया और क्रांति करने के लिए और देश भक्ति की भावना भरते।  स्वामी जी अंग्रेजी शाशन का खुलकर विरोध किया।

187 के स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान

स्वामी जी ने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर स्वामी जी ने  पाँच ऐसे व्यक्तियों से भेंट की, जो स्वामी जी के विचारो और उपदेशो से प्रभावित थे।सन् 1857 की क्रान्ति के मुख्य सूत्रधार यही पांचो व्यक्ति बने थे। ये पांच व्यक्ति- नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह थे। स्वामी जी ने इन पाँचो क्रांतिकारियों से काफी देर तक बात की। यहीं पर यह निश्चित किया गया कि अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति की जाये। और एक मजबूत रणनीति तैयार की जाये।

स्वामी जी ने एक निश्चित दिन तय किया और तय रणनीति के अनुसार एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। परन्तु डर इस बात का था कही ये योजना फिरंगीयो तक ना पहुंच जाये।  स्वामी जी ने क्रांति का सन्देश जनसाधारण तथा भारतीय सैनिकों तक पहुँचाने का बीड़ा स्वामी जी ने लिया। इस क्रान्ति की आवाज को पहुँचाने के लिए ‘रोटी तथा कमल’ की योजना यहीं तैयार की गई। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सन्देश को रोटी के बीच देकर भारतीय सेनिको तक पहुँचाने का काम करते। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही थी।

सम्पूर्ण विचार-विमर्श तथा योजना-निर्धारण के बाद  स्वामी जी हरिद्वार में ही रुक गए ताकि फिरंगियों को इस योजना की भनक ना लगे। अन्य पांचों क्रांतिकारी नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों पर चले गए तथा योजना के अनुसार काम करने लगे। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वसनीय साधु संन्यासियों से सम्पर्क किया और उनका एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का एक केंद्र योगमाया मन्दिर में बनाया गया जो इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित है। इस केंद्र ने स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम् भूमिका निभायी।

स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी
swami dayanand saraswati

 

स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं की टोली ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का बिगुल बजाया। और लोगो को क्रांति के लिए जागरूक करने का काम किया। साथ में ,वे क्रान्तिकारियों के सन्देश को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते तथा उन्हें प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अंग्रेजों से दो दो हाथ करते थे। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में स्वतंत्रता सेनानी स्वामी जी के निरन्तर सम्पर्क में रहे। परन्तु स्वतंत्रता संग्राम का यह मिशन असफल रहा। स्वतंत्रता सेनानीयो के सही समय पर एकजुट न हो पाना तथा तय समय से पहले क्रांति का शुरू हो जाना और हथियारों की कमी , ये सब 1857 की क्रान्ति की असफलता के मुख्य कारण थे।

स्वतंत्रता संग्राम का मिशन असफल होने पर भी स्वामी जी निराश नहीं हुए थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था कि केवल एक बार प्रयास करने से ही आजादी प्राप्त नहीं की जा सकती है। इसके लिए तो संघर्ष तथा बलिदान की लम्बी प्रक्रिया चलानी होगी। हरिद्वार में जब सत्र 1855 की बैठक में यह योजना बनाई गयी थी तब  बाबू कुंवर सिंह ने इस योजना की सफलता  के बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था “स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता”। भारत धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में पराधीन बना है। अब इसको आजाद होने में भी एक सौ वर्ष लग जाएंगे। इस स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल लोगो की जान जाएगी तथा उन्हें अपना बलिदान देना होगा। बहुत लोगो को खून बहाना होगा तब कही जाकर आजादी का स्वाद चखने को मिलेगा। स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी सही साबित हुई, इसे भी बाद की घटनाओं ने सिध्द क्र दिया। स्वतन्त्रता-संग्राम की असफलता के बाद जब तात्या टोपे, नाना साहब तथा अन्य स्वतंत्रता सेनानी स्वामी जी से मिले तो उन्हें भी स्वामी जी ने निराश न होने तथा उचित समय की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का अंग्रजो को तीखा जवाब देना

स्वामी जी और अंग्रजो के बीच हमेशा मतभेद रहा था। स्वामी जी लोगो को अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन करने के लिए प्रेरित करते थे। इस बात की भनक अँग्रेज सरकार को थी। अँग्रेज सरकार हमेशा स्वामी जी के विरुद्ध षड्यंत्र करती रहती थी। एक बार स्वामी जी और लॉर्ड नार्थब्रुक  इधर-उधर की कुछ औपचारिक बाते कर रहे थे। तभी लॉर्ड नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी- “अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेंगे।” अर्थात लॉर्ड नार्थब्रुक चाहते थे कि स्वामी जी जब भाषण के शुरू में ईश्वर की वंदना करते है , तब वे ईश्वर से अँग्रेज सरकर के कल्याण की भी प्रार्थना करे। गर्वनर की बात सुनकर स्वामी जी सरलता से सब कुछ समझ गए। स्वामी जी को अंग्रेज गर्वनर की बुद्धि पर थोड़ा तरस भी आया। उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर को जवाब दिया-

मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।

स्वामी जी ने इस का तरह तीखा जवाब देकर गवर्नर के मुँह पर सीधा तमाचा मारा। गवर्नर ने कभी भी इस तर के जवाब की उम्मीद नहीं की थी तथा मुलाकात शीघ्र ही पूर्ण कर दी गई और स्वामी जी वहां से चले आए। इसके बाद अंग्रेज सरकार ने स्वामी जी पर तथा उनकी संस्था आर्य-समाज पर गहरी निगरानी रखना शुरू कर दी। स्वामी जी की प्रत्येक गतिविधि और उनके द्वारा दिए गए भाषणों का रिकार्ड रखा जाने लगा। अंग्रेज सरकार को अहसास होने लगा कि आम जनता पर स्वामी जी का प्रभाव पद रहा है।  और यह स्वामी सरकार के लिए कभी खतरा पैदा कर सकता है। इस तरह अंग्रेज सरकार स्वामी जी के खिलाफ षड्यंत्र रचने लग गयी। और स्वामी जी की हत्या करने का प्रयास करने  लग गए ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा समाज सुधारक के रूप में किये गए प्रयास

आर्य समाज की स्थापना :- Establishment of arya samaj

स्वामी  दयानन्द सरस्वती ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932 अर्थात सन् 1875 को मुम्बई के गिरगांव में आर्यसमाज की स्थापना की थी। इस आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत सामाजिक के कल्याण के लिए है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना आर्य समाज का लक्ष्य था। अतः आर्य समाज का उद्देश्य भारत वर्ष में धर्म की स्थापना करना व वेदों का प्रकाश फैलाना था। स्वामी जी ने धर्म का ज्ञान फैलाने के उद्देश्य से कई पुस्तकों की रचना की तथा आर्य समाज के 10 सूत्रीय नियम थे जिसका नाम था कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात विश्व को आर्य बनाते चलो।

हिंदी भाषा को बढ़ावा देना :- Promotion of hindi language 

स्वामी दयानन्द सरस्वती को हिंदी भाषा से अत्यधिक प्रेम था। स्वामी जी चाहते थे कि हिंदी भाषा को भारत की राष्ट्र भाषा बनाया जाये। भारत के विभिन्न राज्यों में अलग अलग भाषा बोली जाती है। और उस अंग्रेज सरकार भारत के लोगो में अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा दे रही थी।  स्वामी जी नहीं चाहते थे कि लोगो में बोली जानी आम भाषा अंग्रेजी हो।  हालाँकि उनकी मातृभाषा गुजराती थी व धर्म भाषा संस्कृत थी किंतु हिंदी एक ऐसी भाषा थी जिसे भारत के ज्यादातर सभी लोग बोलने में , समझने में व पढ़ने सक्षम थे। इसलिये उन्होंने संपूर्ण भारत की राष्ट्र भाषा को बनाना चाहते थे, ना किसी  विदेशी भाषा को।

सभी धर्मों की कुरीतियों का विरोध करना :- Opposing the evils of all religions

स्वामी जी ने सभी धर्मो में फैली हुई बुराईयो , कुरीतियों। का जमकर विरोध किया। परन्तु स्वामी जी ने सबसे पहले अपने हिन्दू धर्म में फैली हुई बुराइयों व कुरीतियों का गहन अध्ययन किया और साथ में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। इस दौरान स्वामी जी कई विद्वानों तथा पंडितों से मिले और उनके साथ शास्त्रात किया तथा उन्हें भी परास्त किया।हिन्दू धर्म के बाद उन्होंने अन्य धर्मो जैसे कि इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध व सिख धर्म का अध्ययन करना शुरू किया । इन धर्मो में  फैली बुराईयो  तथा  गलत नीतियों का विरोध किया। इस तरह उन्होंने केवल एक धर्म में फैली कुरीतियों का विरोध नहीं किया बल्कि सभी धर्मो में फैली कुरीतियों को समाप्त करना अपना उद्देश्य समझा। उनका मुख्य कार्य समाज को एक नयी दिशा व चेतना देना का था ताकि लोग एक सभ्य, सुशिक्षित व स्वतंत्र समाज में जीवनव्यापान कर सके।

स्वामी जी इस्लाम धर्म के कट्टर विरोधी थे।  स्वामी जी ने इस्लाम धर्म की नीतियों का जमकर विरोध किया। एक बार तो उन्होंने मोहम्मद को ढोंगी भी बता दिया था। स्वामी जी ने कहा कुरान , अल्लाह के शब्द  नहीं है। स्वामी जी का कहना था कि जो धर्म दूसरों से इतनी नफरत करता हो ,  हिंसा करता हो , जीवों की हत्या करता हो , महिलाओं को उपभोग की वस्तु मानता हो ,उसे वह भगवान के द्वारा गए कहे शब्द नही मान सकते।क्योकि परमात्मा किसी जीव का बुरा नहीं चाहता है।

जाती का विरोध :- Opposition to caste

स्वामी ने वेदों का अध्ययन किया। उन्होंने अनेक विद्वानों और पंडितो के साथ  तर्क – वितर्क किये।  स्वामी जी ने वेदों से ज्ञान अर्जित करने के उपरांत कहा  ”व्यक्ति की जाति उनकी परिवार की जाति के अनुसार ना होकर कर्म के अनुसार निर्धारित होनी चाहिए”।

भेदभाव का विरोध :- Opposition to discrimination 

स्वामी जी ने समाज में व्याप्त अत्याचार तथा भेदभाव का जमकर विरोध किया। उस समय शूद्र तथा दलितों के साथ ज्यादा भेदभाव होता था। अतः स्वामी जी ने उन्हें अधिकार दिलाने के लिये कई प्रयास किये। वे दलितों के उद्धार के पक्षधर थे।

बाल विवाह का विरोध :- Protest against child marriage

स्वामी जी ने इस प्रथा का कड़ा विरोध किया था। समाज में बल विवाह चरम सीमा पर था।  स्वयं स्वामी जी का भी बाल विवाह का प्रस्ताव आया था परन्तु स्वामी जी ने इसे ठुकरा दिया था। कम उम्र में शादी करने से अपरिपक्व उम्र में ही उनके बच्चे हो जाते थे।  जिससे बच्चे तथा माँ – बाप दोनों अस्वस्थ रहते थे।  और छोटी सी उम्र में ही गृहस्थी का एक भारी भरकम बोझ आ जाता था।  इसीलिए स्वामी जी ने इस प्रथा का घोर विरोध किया था।

महिलाओ की शिक्षा का समर्थन :- Support women’s education

उस समय महिलाओ की स्थिती बहुत खराब थी। पुरुष महिलाओ से घरेलु काम करते और उन्हें यातना देते।  महिलाओ का एक वर्ग शिक्षा से पिछड़ गया था। अतः स्वामी जी ने महिलाओ की स्थति सुधारने के लिए उनके पक्ष में खड़े हुए और उनको शिक्षा दिलाने क लिए जोर दिया।  उनके अधिकारों के लिए लडे।  वे महिलाओं को भी समान अधिकार व शिक्षा का अधिकार दिलाना चाहते थे।

सतीप्रथा का विरोध :- Protest against the practice of sati

यह इंसानियत के खिलाफ एक बहुत ही भयानक प्रथा थी।  इस प्रथा में अपने पति की मृत्यु के उपरांत उसकी पत्नी को भी चिता में बिठा दिया जाता था और उसे जिन्दा जला दिया जाता था।  स्वामी जी ने इस प्रथा का पुरे जोर से विरोध किया था। अतः इस प्रथा का विरोध बहुत से विद्वानों ने भी किया था। चूँकि इस प्रथा के बारे में वेदों में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था।

विधवा विवाह का समर्थन :-  Support of Widow marriage 

इसी सतीप्रथा के साथ एक प्रथा और प्रचलित थी।  उस समय किसी महिला के विधवा हो जाने पर उसे सामाजिक शुभ कार्य  में शामिल नहींहोने दिया जाता था।  उसे समाज के हर शुभ कार्य से वंचित रखा जाता था।  अतः उसे एक असहाय की तरह जीवन व्यापन करना होता था। समाज में एक विधुर पुरुष को पुनः विवाह करने का अधिकार मिला हुआ था लेकिन विधवा महिला को यह अधिकार नहीं था । इसलिये स्वामी जी ने इस विधवा विवाह का भी समर्थन किया था ।

अन्य प्रयास :- Other efforts

स्वामी जी ने लोगो को स्वस्थ रखने के लिए योग तथा प्राणायाम को बढ़ावा दिया।  तथा सभी लोगो को प्रतिदिन योग करने की सलाह देते थे। उन्होंने लोगो को शाकाहार के लिए प्रेरित किया।  तथा लोगो अहिंसा का पाठ पढ़ाया।  स्वामी जी जीव हत्या के विरोध में थे और  सभी जीवों की रक्षा करना अपना दायित्व समझते थे।

आप पढ़ रहे है स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी .

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एक षड़यंत्र के तहत स्वामी  दयानन्द की मृत्यु :- Swami Dayanand’s death under a conspiracy

समय समय पर स्वामी जी को मारने के लिए अनेक षड्यंत्र किये गए।  अंग्रेज सरकार ने बहुत प्रयास किया स्वामी जी को मरवाने के लिए और आखिरकार वे सफल भी रहे।  एक बार तो किसी समुदाय विशेष के लोगो ने स्वामी जो को नदी में फेंक दिया था।  परन्तु स्वामी जी अपनी योग विद्या से बच निकले। स्वामी जी की मृत्यु  30 अक्टुम्बर 1883 को दिवाली के दिन शाम के समय में हुई थी।

कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती एक बार जोधपुर नरेश जसवंत  सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर में गए हुए थे।  स्वामी जी वह रोज प्रवचन करते थे।  और साथ में जोधपुर नरेश जसवंत सिंह भी उनके चरणों में बैठकर प्रवचन सुनते थे। एक बार स्वामी जी महल में गए हुए थे।  तभी उन्होंने देखा कि एक नन्ही नामक वेश्या महाराज के कार्यो में हस्तक्षेप कर रही थी।  और तो और महाराज भी उससे प्रभावित थे। यह देख स्वामी जी को बुरा लगा और उन्होंने महाराज को समझाया। और  महाराज ने स्वामी जी की बात मान ली। जसवंत सिंह ने उस वेश्या को महल से निकाल दिया।  जिसकी वजह से वह वेश्या स्वामी जी खिलाफ हो गयी।

कहा जाता है कि उस वेश्या ने स्वामी जी के रसोईए को अपनी तरफ मिला लिया था।  और उसके द्वारा स्वामी जी के दूध में पिसा हुआ काँच मिला दिया।  जिससे स्वामी जी तबियत खराब हो गयी और स्वामी जी को वेधशाला में ले जाया गया।  परन्तु आश्चर्यजनक बात यही थी कि वह वेश्या थोड़ी देर में स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया।  स्वामी जी का हृदय विशाल था इसीलिए उन्होंने उसे क्षमा कर दिया।  उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए कुछ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया

स्वामी जी का वेधशाला में उपचार चल रहा था परन्तु वह वेध भी शंका के दायरे में था। कहा जाता है कि वह वेध  अंग्रेज सरकार के इशारे पर स्वामी जी की औषधि में धीमा जहर मिला रहा था।  जिससे स्वामी जी की तबियत और ज्यादा खराब हो गयी।  और उन्हें अजमेर वेधशाला में लाया गया परन्तु तब तक बहुत ज्यादा देर हो गयी थी। और स्वामी जी ने अजमेर में अंतिम साँस ली। ऐसा मन जाता है कि यह पूरा घटना क्रम अंग्रेज सरकार के इशारे पर हो रहा था क्योकि एक साधारण वेश्या और वेध के वश कि बात नहीं है इतना बड़ा षड़यंत्र रचना।

स्वामी जी के अंतिम शब्द :- Swamiji’s last words

स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द सरस्वती  का शरीर सन् 1883 को दिवाली के दिन पंचतत्व में विलीन हो गया।  वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् – अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे – “प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।”

स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

1.सरदार वल्लभ भाई पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही डाली थी।
2.श्रीमती एनी बेसेन्ट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था  ‘आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए है ‘।
3.डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
4.नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने स्वामी जी को  “आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता” माना था।
5.पट्टाभि सीतारमैया का स्वामी जी के लिए विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं परन्तु स्वामी जी  राष्ट्र–पितामह हैं।
6.लाला लाजपत राय ने कहा था – स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया है।
7.वीर सावरकर ने कहा था कि स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वतंत्रता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।
8.लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार स्वामी जी “स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मंत्र प्रदान करने वाले उज्जवलमय नक्षत्र थे ”
9.फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी जी राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
10.फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठो , जागो , आगे बढ़ो। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश करो।
11.सैयद अहमद खां के अनुसार स्वामी जी “स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य धर्म के लोग भी सम्मान करते थे।”
12.अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने स्वामी जी को “आदि शंकराचार्य के बाद “बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहार करने वाला ” माना था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती के लेखन और साहित्य:- Writings and Literature of Swami Dayanand Saraswati

स्वामी जी ने अपने जीवन कल में कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें लिखीं। वे शुरू में पुस्तकें संस्कृत में लिखते थीं, किन्तु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा  यानि की   हिन्दी में  लिखा, क्योंकि आर्यभाषा की पहुँच संस्कृत से अधिक थी। हिन्दी को उन्होंने ‘आर्यभाषा’ का नाम दिया था। उत्तम लेखन के लिए आर्यभाषा का प्रयोग करने वाले स्वामी दयानन्द अग्रणी व प्रारम्भिक व्यक्ति थे। यदि स्वामी  दयानन्द सरस्वती के ग्रंथों व विचारों पर चला जाये तो राष्ट्र पुनः विश्वगुरु गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्मम्पन्नशाली, सदाचारी और महान बन जायेगा ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती की मुख्य कृतियाँ :- Main works of Swami Dayanand Saraswati

  1. सत्यार्थप्रकाश     2.  ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका    3. ऋग्वेद भाष्य   4.  यजुर्वेद भाष्य

5. चतुर्वेदविषयसूची   6. संस्कारविधि   7.  पंचमहायज्ञविधि   8.  आर्याभिविनय

9. गोकरुणानिधि    10.  आर्योद्देश्यरत्नमाला   11.  भ्रान्तिनिवारण   12.  अष्टाध्यायीभाष्य

13. वेदांगप्रकाश     14.  संस्कृतवाक्यप्रबोध   15.  व्यवहारभानु

स्वामी दयानन्द के अनमोल विचार :- Precious thoughts of Swami Dayanand

  1. ये शरीर नश्वर है।   हमे इस शरीर के माद्यम से  सिर्फ एक अवसर मिला है, खुद को यह साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है।
  2. क्रोध का भोजन ‘विवेक’ है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योकी ‘विवेक’ नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
  3. वेदों मे वर्णीत सार का पालन  करने वाले ही यह जान सकता  हैं कि  ‘जिन्दगी’ का मूल बिन्दु क्या है।
  4. अगर मनुष्य का मन शांत है, चित्त  प्रसन्न है, ह्रदय हर्षित  है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का फल  है।
  5. अहंकार  एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह आत्मबल और आत्मज्ञान को खो देता है।
  6.  ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये मनुष्य को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।

 स्वामी  दयानद सरस्वती की जीवनी का निष्कर्ष :-

यह थी स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी।  दोस्तों  वैसे तो स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी बहुत बड़ी है पर इसे आपके लिए एक संक्षिप्त रूप में लिखा गया है ताकि यह लेख ज्यादा बड़ा ना  हो। स्वामी जी को एक समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है जिनका प्रमुख नारा था – ”वेदों की और चलो ”  आपको  स्वामी जी की जीवन कथा कैसी लगी।  कृपया कमेंट करके बताये।  ताकि हम और ज्यादा अच्छा लिख सके। स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी  से आपको क्या शिक्षा मिली। यह जीवनी कैसी लगी, हमे कमेंट करके बताये

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