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हल्दीघाटी का युद्ध कब और कहाँ हुआ था ? इसका इतिहास और परिणाम

हल्दीघाटी का युद्ध कब और कहाँ हुआ था इसका इतिहास और परिणाम

इतिहास में कई युद्ध हुए, लेकिन हल्दीघाटी के युद्ध का एक अलग महत्व है। भारतीय इतिहास में हल्दीघाटी का युद्ध अब तक लड़े गए युद्धों में सबसे घमासान युद्ध माना जाता है। इस युद्ध में कुछ ही घंटो में हजारों सेनिको ने जान गवा दी।

Hello Friends, इस लेख में ” हल्दीघाटी का युद्ध किस किस के बीच में हुआ ? और हल्दीघाटी का युद्ध कब और कहाँ हुआ था ? ”  के बारे में बताया जा रहा है। आप महाराणा प्रताप के बारे में तो जानते ही होंगे। यदि आप महाराणा प्रताप के जीवन के बारे में नहीं जानते है तो यहाँ क्लिक करके उनके जीवन के बारे में जाने

हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप के जीवन का सबसे बड़ा युद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा को काफी जन-धन की हानि हुई थी। उन्हें जंगलो में रहना पड़ा और घास की रोटी खानी पड़ी। हालाँकि महाराणा ने कई युद्ध लड़े थे। लेकिन यह युद्ध उनके जीवन का मुख्य युद्ध था।

हल्दीघाटी का युद्ध किस किस के बीच में हुआ था ?

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ के महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच लडा गया था। अकबर की सेना का नेतृत्व आमेर के राजा मानसिंह प्रथम ने किया था। इस युद्ध में मुख्य रूप से महाराणा प्रताप को भील जनजाति का सहयोग मिला था।

महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों को युद्ध में उतारा। जबकि राजा मानसिंह प्रथम ने लगभग 5,000-10,000 सैनिकों का नेतृत्व किया। इस युद्ध में मेवाड़ियों का बहुत नुकसान हुआ था।

हल्दीघाटी का युद्ध कहाँ हुआ था ?

हल्दीघाटी का दर्रा राजस्थान में एकलिंगजी से 18 km की दूरी पर है। अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर और बलीचा गांव के बिच एक तंग प्राकृतिक दर्रा है, जहां हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया था। खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक कुछ घंटों तक युद्ध लड़ा गया था।

यहाँ से आरम्भ होकर खमनोर में स्थित रक्ततलाई के खुले मैदान में खुनी युद्ध लड़ा गया। इस जगह की मिट्टी पीली होने के कारण इसका नाम हल्दीघाटी पड़ा। हल्दीघाटी उदयपुर से 44 किमी की दूरी पर है। इस जगह को देशभक्तों की अमर तीर्थ स्थली के नाम से भी जाना जाता है।

हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ था ?

महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच 18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था। यह युद्ध सूर्योदय के तीन घंटे बाद शुरू हुआ था। यह युद्ध एक भीषण युद्ध था। इस युद्ध के परिणाम निर्णायक नहीं थे। हालाँकि महाराणा प्रताप ने मुग़ल सेना को धूल चटा दी थी।

बहलोल खान को घोड़े सहित बीच में से चीरने के बाद मुग़ल सेना में प्रताप का एक अलग ही खौफ था। भीषण रक्तपात के साथ यह युद्ध 3 से 4 घण्टे के लिए लड़ा गया था। इस युद्ध के बाद प्रताप को जंगलो में रहना पड़ा था।

हल्दीघाटी का युद्ध क्यों लड़ा गया था ?

दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर ने पुरे हिन्दुस्थान पर शासन करने की योजना बनाई। अकबर की सेना एक के बाद एक राज्य को रोंदते हुए अकबर के साम्राज्य में मिला रही थी। कई राजा बिना युद्ध लड़े ही अकबर की सेवा में चले गए।

जबकि कई राजाओ को युद्ध के द्वारा कुचल दिया गया और उनकी जागीर छीन ली गयी। राजस्थान के कई राजाओ ने बिना युद्ध लड़े ही अकबर की स्वाधीनता स्वीकार कर ली। लेकिन पुरे हिन्दुस्थान में मेवाड़ एकमात्र राज्य था, जिसने अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की।

महाराणा प्रताप ने अकबर की स्वाधीनता स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया था। अकबर काफी शक्तिशाली सम्राट था। उसके पास एक विशाल सेना थी। वह राजपूत क्षेत्रो पर अपना अधिकार करना चाहता था। उदय सिंह को अकबर की गुलामी बिलकुल भी स्वीकार नहीं थी।

अकबर गुजरात के साथ संचार की सुरक्षित व्यवस्था के लिए मेवाड़ के जंगली और पहाड़ी इलाके को अपने अधिकार में करना चाहता था। लेकिन अकबर यह नहीं जानता था कि मेवाड़ का सरदार महाराणा प्रताप अडिग व स्वाभिमानी है। प्रताप सर कटा सकता था, लेकिन अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं थी।

जिसके बाद सन्न 1568 में उदय सिंह द्वितीय के शासनकाल के दौरान अकबर ने चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी की। उदय सिंह को पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। चित्तौड़गढ़ में अकबर ने लगभग 40 हजार लोगो को मार डाला। अकबर की सेना ने मेवाड़ के पूर्वी भाग में उपजाऊ क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया।

चितोड़ की रक्षा की जिम्मेदारी मेड़ता के राजा जयमल को सौंप दी गई। फिर उदय सिंह प्रताप को लेकर अरावली के जंगलों में रहने लगे। कुछ समय बाद उदय सिंह की मृत्यु हो गयी और मेवाड़ की कमान प्रताप के हाथ में आ गयी।

अकबर कई सालों तक महाराणा प्रताप को मुगल साम्राज्य की गुलामी स्वीकार करने के लिए पत्र भेजता रहा। लेकिन प्रताप को युद्ध मंजूर था लेकिन मुग़ल की गुलामी नहीं। महाराणा प्रताप का राजतिलक होने पर अकबर ने अपने दूतों को भेजकर प्रताप को अपना गुलाम बनने के लिए कहा।

अकबर ने प्रस्ताव रखा कि वह अन्य राजपूत राजाओं की तरह उनके गुलाम बनकर जागीरदार के रूप में उनके लिए कार्य करें। लेकिन प्रताप नहीं चाहते थे कि मेवाड़ किसी मुग़ल के हाथ लगे। उन्होंने अकबर के दूतो को साफ मना कर दिया। 1972 के बाद 4 साल तक अकबर प्रताप को मनाने के लिए दूतों को भेजता रहा, लेकिन प्रताप नहीं माने।

अकबर ने सबसे पहले अपने विश्वसनीय दूत जलाल खान कुरची को प्रताप के पास भेजा लेकिन वह प्रताप को मनाने में असफल रहा। इसके बाद अकबर ने कच्छवा वंश के साथी राजपूत अम्बर को भेजा, लेकिन वह भी असफल रहा।

तीसरी बार अकबर ने राजा भगवंत दास प्रताप के पास भेजा। राजा भगवंत दास के कहने पर प्रताप ने अपने बेटे अमर सिंह को मुगल दरबार में भेजा। महाराणा प्रताप के इस रवैया से अकबर काफी क्रोधित हुआ था। इसके बाद एक अंतिम दूत टोडर मल को प्रताप के पास भेजा।

वह भी प्रताप को अकबर की सेवा में लेन में विफल हुआ। जब महाराणा प्रताप ने अकबर की गुलामी स्वीकार करने से मना कर दिया, तब हल्दीघाटी का युद्ध तय हुआ। अनेक राजपूत राजाओं ने प्रताप का साथ न देकर अकबर का साथ दिया।

अकबर की तरफ से आमेर के राजा मानसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध का नेतृत्व किया था। मानसिंह ने मांडलगढ़ को अपना सैन्य ठिकाना बनाया और अपनी सेना जुटाई और गोगुन्दा के लिए प्रस्थान किया। गोगुन्दा के उत्तर में लगभग 23 km की दूरी पर खमनोर गाँव स्थित है। खमनोर व बलीचा गांव के बीच तंग पहाड़ी दर्रे में यह युद्ध लड़ा गया।

Haldighati Yudh में सेना की ताकत

मेवाड़ी परंपरा और कविताओं के अनुसार महाराणा प्रताप की सेना में 20000 सैनिक थे। जबकि अकबर की सेना में 80,000 सैनिक थे, जो प्रशिक्षित थे। प्रताप की सेना में भील धनुर्धर थे। युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा ने प्रताप का बहुत साथ दिया।

झाला मान, हाकिम खान,ग्वालियर नरेश राम शाह तंवर ने युद्ध में प्रताप का साथ दिया और वीरगति को प्राप्त हो गए। इस युद्ध में प्रताप का प्रिय घोडा चेतक भी शहीद हो गया था। सतीश चंद्र के अनुसार कि मानसिंह की सेना में 5,000-10,000 सैनिक शामिल थे, जिसमें मुग़ल और राजपूत दोनों शामिल थे।

हल्दीघाटी युद्ध के लिए सेना का गठन

महाराणा प्रताप की तरफ से पानरवा के सोलंकी ठाकुर राणा पूंजा व उनके 400 भील धनुर्धारियों की सेना, अफगान सरदार हकीम खान सूरी, दोडिया के भीम सिंह और रामदास राठौड़ ने युद्ध में सहयोग दिया।

ग्वालियर के पूर्व राजा रामशाह तंवर और उनके तीन पुत्रों के साथ मंत्री भामाशाह और उनके भाई ताराचंद ने युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रताप ने अपने घोड़े के साथ केंद्र में लगभग 1,300 सैनिकों का नेतृत्व किया। मेवाड़ी लोगो ने प्रताप का युद्ध में साथ दिया।

जबकि मुगलों ने 85 रेखाओं के एक दल को बरहा के सैय्यद हाशिम के नेतृत्व में अग्रिम पंक्ति में रखा। जगन्नाथ के नेतृत्व में कछवा राजपूत, बख्शी अली आसफ खान के नेतृत्व में मुग़ल सेना और माधोसिंह कच्छवा के नेतृत्व में अकबर की सेना थी।

राजा मानसिंह ने युद्ध केंद्र में सेना का नेतृत्व किया। मुगल वामपंथी विंग की कमान बदख्शां के मुल्ला काजी खान और सांभर के राव लोनकर ने संभाली थी। इसमें फतेहपुर सीकरी के शेखजादों, सलीम चिश्ती के रिश्तेदारों को शामिल किया था।

साम्राज्यवादी ताकतों का सबसे मजबूत सैनिक दल निर्णायक दक्षिणपंथी में तैनात था, जिसमें बरहा के सैय्यद शामिल थे। अन्त में मुख्य सेना के पीछे मिहिर खाँ के पीछे का दल अच्छी तरह से खड़ा था।

हल्दीघाटी का युद्ध

18 जून 1576 को सूर्योदय के तीन घंटे बाद खमनोर व बलीचा गांव के बीच तंग पहाड़ी दर्रे से युद्ध शुरू हुआ और खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक युद्ध लड़ा गया। दोनों सेनाओ में असमानता थी।

अकबर के पास एक विशाल सेना थी, जिसका नेतृत्व आमेर के राजा मानसिंह कर रहे थे। वही महाराणा प्रताप के पास सेना की एक छोटी सी टुकड़ी और कुछ भील धनुर्धारी थे। अकबर की सेना के सामने प्रताप की सेना छोटी थी।

लेकिन प्रताप की सेना में एक विचित्र साहस व निष्ठा थी। प्रताप ने मुगलों पर एक पूर्ण ललाट हमला करने का निर्णय लिया। इससे कई मुग़ल सैनिक मारे गए। हकीम खान सूरी और रामदास राठौर ने  मोहरा से लोहा लिया।

जबकि रामसाह तोंवर और भामाशाह ने मुगल वामपंथी पर हमला किया और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया। दक्षिणपंथियों पर बिदा झल्ला का कहर था। मुल्ला काज़ी ख़ान और फ़तेहपुरी शेखज़ादों के दोनो कप्तान  घायल हो गए।

लेकिन सैय्यद बरहा ने बहादुरी युद्ध किया और माधोसिंह के अग्रिम भंडार के लिए पर्याप्त समय बचाया। राम साह तोंवर ने मुगल वामपंथी को खदेड़ दिया और प्रताप की सहायता के लिए उनके पास गये।

राम साह तोंवर जगन्नाथ कच्छवा द्वारा मारे गए लेकिन प्रताप को बचने में वे सफल हुए थे। माधो सिंह के आने से मुगल टुकड़ी में जोश आ गया था, जो कि पहले बुरी तरह से दबाया जा रहा था। मेवाड़ी प्रभारी की गति बढ़ने के कारण लड़ाई ओर अधिक पारंपरिक हो गई थी।

प्रताप सीधे मान सिंह से टक्कर लेना चाहते थे, लेकिन वे मान सिंह तक पहुँच नहीं पा रहे थे। प्रताप माधोसिंह से लोहा ले रहे थे। दोडिया कबीले के नेता भीम सिंह ने मुगल हाथी पर चढ़ने की कोशिश की लेकिन अपनी जान गवा बैठे।

युद्ध की गति को बढ़ाने के लिए महाराणा प्रताप ने अपने हाथी लोना को मैदान में लाने का आदेश दिया। मान सिंह ने जवाबी हमला के लिए गजमुक्ता को भेजा ताकि लोना का सिर काट दिया जा सके। दोनो हाथियों में भीषण टक्कर हुई, जिससे कई सैनिक घायल हो गए।

लोना के महावत को गोली लगने से वह घायल हो गया था, जिस वजह से लोना को युद्ध मैदान से जाना पड़ा। लोना को राम प्रसाद नामक हाथी से बदला गया ताकि उसे आराम मिल सके। जबकि घायल गजमुक्ता को राहत देने के लिए दो शाही हाथी गजराज और रण-मदार भेजे गए।

लेकिन इस बार भी राम प्रसाद का महावत भी घायल हो गया था। एक तीर लगने से और अपने माउंट से गिरने से वह घायल हो गया। हुसैन खान, मुगल फौजदार राम प्रसाद पर अपने ही हाथी से छलांग लगाते हैं और उन्हें मार गिराते है।

प्रारम्भ में मेवाड़ी सैनिक मुग़ल सेना पर कहर बरपा रहे थे। लेकिन अचनाक किसी ने अफवाह फैला दी कि बादशाह अकबर नयी सैन्य टुकड़ी के साथ युद्ध मैदान में आ रहे है। इस वजह से मुग़ल सेना जोश आ गया और मेवाड़ियों पर टूट पड़े।

मुग़ल मेवाड़ी सेनिको को तीनो तरफ से दबाने में सफल रहे। जिसके बाद एक एक करके राजपूत योधा गिरने लगे। धीरे धीरे युद्ध का पलड़ा मुगलो कि तरफ बढ़ने लगा। महाराणा प्रताप ने खुद को तीर और भाले से घायल पाया। महाराणा ने महसूस किया कि अब हार निश्चित है।

तभी बिदा झाला ने अपने सेनापति से शाही छत्र जब्त कर लिया और खुद को महाराणा प्रताप होने का दावा करते हुए मैदान में युद्ध करते रहे। बिदा झाला के बलिदान के कारण घायल प्रताप लगभग 1800 राजपूत सेनिको के साथ युद्ध भूमि से भागने में सफल हुए।

प्रताप अपने बचे हुए सेनिको के साथ पहाड़ियों में छिप गए। महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने अपना अश्व देकर प्रताप को बचाया। लम्बे – चौड़े नाले को पार करने के बाद प्रताप के घोड़े चेतक की मृत्यु हो गई थी।

युद्ध में महाराणा प्रताप की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते है कि उन्होंने बहलोल खान को घोड़े सहित एक ही वॉर में बीच में से चिर दिया था। प्रताप हमेशा अपने साथ 2 तलवार रखते थे, क्यूँकि वे कभी भी निहत्य पर वॉर नहीं करते थे।

रामदास राठौर तीन घंटे की लड़ाई के बाद मरे गए। राम साह तोवर अपने तीनो बेटो के साथ में अपने प्राण न्योछवर कर दिए। मुग़ल सेना और मेवाड़ी सेना में दोनों तरफ राजपूत सैनिक थे। भीषण युद्ध के बाद बदायुनी ने आसफ खान से पूछा कि मैत्रीपूर्ण और दुश्मन राजपूतों के बीच अंतर कैसे किया जाए।

आसफ खान ने जवाब दिया कि जिसको भी आप पसंद करते हैं और जिस तरफ वे मारे जा सकते है, उसे गोली मार दो। यह इस्लाम के लिए एक लाभदायक होगा। मध्ययुगीन भारत में अपने मुस्लिम आकाओं के लिए सैनिकों के रूप में बड़ी संख्या में हिंदू लोग मारे गए। यह युद्ध एक दिन चला था, जिसमें 17,000 लोग मारे गए थे।

मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने हर संभव प्रयास किया था, लेकिन वह महाराणा को झुका नहीं सका था। इसी दौरान 24,000 सैनिकों के लिए 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हो गया। मुगलों का सफल प्रतिरोध के बाद उन्हें “हिंदुशिरोमणी” माना गया।

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम कुछ भी नहीं रहा। चार घंटे चलने वाले इस युद्ध में प्रताप व उनका घोडा चेतक बुरी तरह घायल हो गए। ऐसे में मेवाड़ी सेनिको ने प्रताप को युद्ध भूमि से बाहर निकला। एक लम्बे नाले को पार करने के बाद चेतक शहीद हो गया।

कुछ इतिहासकार बताते है कि उस समय अकबर की जीत हुई थी। हालाँकि प्रताप व उसकी सेना युद्ध भूमि से भागकर जंगलो में छिप गई थी। जिससे साफ पता चलता है कि युद्ध में अकबर की जीत हुई थी। इस युद्ध में मेवाड़ियों का काफी नुकसान हुआ था।

अकबर ने प्रताप को पकड़ने के लिए 6 महीने तक जंगलो के बाहर डेरा डाल दिया था। लेकिन प्रताप छापामार युद्ध में माहिर थे। प्रताप गोरिला युद्ध कला में निपुण थे। इस युद्ध में अकबर से प्रताप का हौंसला जीत गया था।

जबकि प्रताप से अकबर की सेना जीत गई थी। प्रताप के रहते हुए वो कभी भी नहीं हो पाया जो अकबर चाहता था। महाराणा प्रताप ने अंतिम सांस तक अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की थी।

हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का जंगलो में निवास

हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का शाही निवास छूट गया था। वे अपने परिवार के साथ जंगलो में चले गए। जगंल में रहते हुए प्रताप ने खास की रोटी भी खायी। उन्होंने अरावली की गुफाओं को अपना निवास स्थान बनाया और वही पर अपने परिवार के साथ जीवन व्यापन करने लगे।

इस दौरान प्रताप काफी दुखी भी थे। क्यूंकि वे अपने परिवार को दुखी जीवन जीते नहीं देख पा रहे थे। लेकिन प्रताप मुगलो के सामने झुकना नहीं चाहते थे। अकबर ने महाराणा प्रताप को दिन ए इलाही धर्म स्वीकार करने के लिए कई प्रलोभन दिए। लेकिन प्रताप अपने निर्णय पर अडिग रहें।

प्रताप को अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए जंगलो में दुखी जीवन जीना मंजूर था। वे कायरों की तरह मुगलों के सामने झुकना नहीं चाहते थे। वे मेवाड़ की धरा पर मुगलो की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे।

जंगलों में निवास करने के दौरान कई छोटे राजाओं ने प्रताप को अपने राज्य में रहने की गुजारिश भी की, लेकिन वे जंगलो में रहकर मेवाड़ की रक्षा करना चाहते थे। वे अपनी प्रजा को छोड़ना नहीं चाहते थे। प्रताप देश प्रेमी तो था ही, साथ ही वह प्रजा प्रेमी भी था।

इसलिए प्रताप ने प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, तब तक वे मेवाड़ को छोड़कर जंगल में ही निवास करेंगे। स्वादिष्ट भोजन और सभी ठाट-बाट को छोड़कर फल कंद-मूल से ही पेट भरेंगे। लेकिन आखरी साँस तक अकबर की गुलामी को स्वीकार नहीं करूँगा।

उन्होंने जंगलों में काफी समय भील जनजाति के साथ गुजारा था। उन्होंने भीलों की शक्ति को पहचाना और छापामार युद्ध कला से मुगल सेना की नाक में दम कर रखा था। सैन्य शक्ति जुटाने के लिए मेवाड़ के भामाशाह ने अपनी 20 लाख अशर्फियां और 25 लाख रुपए महाराणा प्रताप को भेट दिए।

जिसके बाद महाराणा प्रताप इन संपत्तियों से पुनः सैन्य संगठित करने में लग गए। हल्दीघाट के युद्ध के बाद प्रताप मुगलों पर हमला करते रहे और गुरिल्ला युद्ध निति से मुग़ल सेनिको को परेशान किया। पहाड़ियों में रहकर उन्होंने मुगल सेनाओं के कई शिविरों को नष्ट किया।

उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मेवाड़ में मुगल सैनिक कभी भी शांति से नहीं रहेंगे। प्रताप को पहाड़ों में से बाहर निकालने के लिए अकबर की सेना द्वारा तीन अभियान चलाए गए, लेकिन वे सभी विफल रहे। उन्होंने राजस्थान के कई क्षेत्रों को मुग़ल शासन से मुक्त कर दिया।

1597 में प्रताप की शिकार की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उन्होंने अपने बेटे अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। अकबर प्रताप से इतना डरता था कि उसने प्रताप के डर से अपनी राजधानी बदल ली थी। 15 साल तक अकबर ने मेवाड़ की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा।

आशा करता हूँ आपको यह लेख अच्छा लगा होगा। इस लेख में हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में विस्तार से बताया गया है। यदि इस लेख में आपको किसी प्रकार की कोई कमी लगे तो आप कमेंट बॉक्स में अपने विचार रख सकते है। कमेंट करके बताये आपको यह लेख कैसा लगा। इससे मुझे और अधिक आर्टिकल लिखने की प्रेरणा मिलती है। इस लेख को अपने दोस्तों के साथ में शेयर करें

FAQ

Q :  हल्दीघाटी का युद्ध कौन जीता था ?
Ans :  हल्दीघाटी के युद्ध में किसी की भी विजय नहीं हुयी थी। लेकिन कुछ इतिहासकार बताते है कि हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की विजय हुई थी। हालाँकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप को भरी नुकसान उठाना पड़ा था।

Q :  हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ था।
Ans :  18 जून 1576

Q :  हल्दीघाटी का युद्ध कहाँ हुआ था ?
Ans :  अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर और बलीचा गांव के बिच एक तंग प्राकृतिक दर्रा में हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया था। खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक कुछ घंटों तक युद्ध लड़ा गया था।

Q :  हल्दीघाटी का युद्ध किस किस के बीच में हुआ था ?
Ans :  18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ के महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच लडा गया था। अकबर की सेना का नेतृत्व आमेर के राजा मानसिंह प्रथम ने किया था। इस युद्ध में मुख्य रूप से महाराणा प्रताप को भील जनजाति का सहयोग मिला था।

Q :  हल्दीघाटी का युद्ध क्यों हुआ था ?
Ans :  अकबर मेवाड़ को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहता था। लेकिन प्रताप अकबर के सामने झुकना नहीं चाहते थे। प्रताप अपनी मातृभूमि पर मुग़ल सेना के गंदे पांव नहीं पड़ने देना चाहता था। इसी वजह से Haldighati Ka Yudh लड़ा गया था।

Q :  महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम क्या था ?
Ans :  चेतक

Q :  चेतक की मृत्यु कैसे हुई ?
Ans :  हल्दीघाटी युद्ध में चेतक घायल हो गया था। युद्ध में उसके शरीर पर कई घाव आये। जब प्रताप युद्ध में बुरी तरह से घायल हो गए थे, तब चेतक ने प्रताप की जान बचाने के लिए एक लम्बे-चौड़े नाले को पार किया। जिसके बाद वह वीरगति को प्राप्त हो गया।

Q :  महाराणा प्रताप के हाथी का क्या नाम था ?
Ans :  महाराणा प्रताप के हाथी का नाम रामप्रसाद था। यह हाथी बहुत ज्यादा ताकतवर और समझदार था। हल्दीघाटी के युद्ध में इस हाथी ने अकेले ही अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था।

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